Wednesday, March 23, 2016

JNU की ओर से नेवता

तमाम हो हल्ला के बीच JNU अपनी अक्षुण्ण परंपरा वाली होली मनाने को फिर तैयार है। JNU के अखिल भारतीय होली के सबसे विशिष्ट और अनोखे कार्यक्रम "चाट सम्मेलन" के लिए एक बार फिर से मुझे नेवता मिला है।कल 23 मार्च शाम से सुनने वाले की क्षमता तक पूरी रात JNU मेँ रहुँगा। JNU को लेकर पिछले कुछ महीने जो तरह तरह की राय बनी है उस संदर्भ मेँ एक अनुरोध जरूर करूँगा कि एक बार JNU की होली जरूर देख लेँ जहाँ "विविध भारती"झुम झुम गाती है,"अखंड भारत" गा गा नाचता है और राष्ट्रीयता कितनी मस्ती मेँ डुब के रंग खेलती है।कल आईए..इसे JNU की ओर से ही नेवता जानेँ।जय हो।

होली है

होली है!और होली मेँ किसी भी कीमत पर अपने गाँव से बाहर नही होना चाहता था पर जाने के भी सारे जतन कर लिये किसी भी कीमत पर जा भी नही पाया होली मेँ गाँव।होली जैसे खाँटी कादो-माटी-रंग वाले पर्व मेँ यहाँ दिल्ली जैसे धुल-धुँआ से बदरंग हुए महानगरोँ मेँ फँस जाना कचोटता तो है ही।न बातोँ मेँ रंग,ना आँख मेँ पानी..फिर भी होली है तो है ही यहाँ भी।अच्छा ऐसा कतई नहीँ है कि मुझे ये भ्रम है कि "गाँव की होली" कभी द्वापर युग मेँ कृष्ण के द्वारा खेली जाने वाली होली जैसी होती है और मेरा गाँव कोई गोकुल ग्राम या मथुरा सरीका है:-)।मुझे ये भी खुशफहमी नही कि,गाँव की होली सामाजिक समरसता का संदेश देती सच्चे भारत की मर्मस्पर्शी धारावाहिक टाईप होली होती है जहाँ हिँदु-मुस्लिम-सिख-ईसाई सब नाच नाच रंग उड़ा होली खेल रहे होँगे और मैँ दिल्ली मेँ बैठा उस अद्भुत् छटा का दर्शन करने से चूक गया हूँ और छटपट छटपट कर रहा हूँ सच्चे भारत के सच्चे गाँव जाने के लिए।यकिन मानिए कि हमरे गाँव जितना गाली गलौज और मार पीट होली मेँ होगा उतना सुडान मेँ गृहयुद्ध मेँ ना हो भैया।दारू पी जब बनिया, मारवाड़ी को गरियायेगा और बाभन सबको गरियायेगा तो ये मार्मिक दृश्य देख आप लजा जायेँगे।अच्छा मैँ इस टाईप का घिसा पिटा आउटडेटेड अफसोस भी नहीँ कर रहा कि,मुझे होली पर माँ के हाथोँ के बने पकवान याद आ रहे हैँ..अहा वो पूआ और अहा वो पिड़किया गुजिया और ठेकुआ।क्योँकि मेरे यहाँ ये एक परंपरा रही है कि किसी भी पर्व पर घर का कोई भी सदस्य खाना पकवान बनाने के रोजाना वाले चक्कर से मुक्त रहे और पर्वोँ पे मेरे यहाँ खाना बुलाये गये रसोईया लोग ही बनाते हैँ,जिसे ये शहर मेँ कैटरर कहा जाता है न।हाँ अगर आप पाक कला के शौकिन होँ तो उसका हाथ बँटा सकते हैँ पर खाना बनाना उस दिन रसोईये पर होता है।और तो और मेरी माँ खुद हमेशा फोन कर यहाँ दिल्ली के लिए भी कहती रहती है कि"कहीँ बढ़िया होटल मेँ जाके खाते पीते रहा करो,तरह तरह की चीजेँ खाते और खुद बनाने भी खीखते रहो,कुछ नया सीख आना तो फिर बनाना भी यहाँ"।घर पर माँ के हाथोँ का खाना खुब खाता हूँ,खुद भी बनाता हूँ,भाई भी बनाता है और बहनेँ भी।सो ये कोई बड़का अफसोस का मैटर नहीँ कि हाय रे होली का पकवान।माँ घर पर रहुँ तो हर दिन स्पेशल ही खिलाती है सो पर्व का इंतजार कम से कम खाने को तो नहीँ रहता।अच्छा फिर आखिर क्या है गाँव मेँ कि मन बेचैन हो जाता है ऐसे मौसम और पर्व मेँ गाँव जाने को।जी है कुछ।असल मेँ योजनाओँ का पैसा कितना भी हड़प लिया जाय,गाँव सड़क पानी बिजली बिना पीछे छुट जाये,लोग लड़े मरेँ या कटेँ,पढ़े ना पढ़ेँ..गाँव आपको मानव विकास सूचकांक मेँ शुन्य रेटिँग ही क्युँ ना दर्शाता हो पर आज भी गाँव के पास कुछ चीजेँ ऐसी है जो ना गाँव का मुखिया लुट पायेगा,ना नेता,विधायक,ना सांसद ना कोई अधिकारी ना कोई नक्सल।जी हाँ गाँव वाले घर के ठीक पीछे पलाश का जंगल,आम का पेड़ और उसमेँ फरे मंजर,उसपे बैठी कोयल,मेरे आँगन बेल का पेड़,नीम के पेड़ की साँय साँय हवा,शीशम की सुगंध,महुआ का पेड़,कचनार वाला फूल ये सब फागुन मेँ कैसे हो जाते हैँ ये फेसबुक पर लिखके बताना संभव नहीँ और इनसब को फागुन मेँ नजदीक जा के महसुस करना मेरे लिए क्युँ इतना जरूरी है ये शब्दोँ के मायाजाल से समझा पाना असंभव सा है।प्रकृति का ये जादू ना कवि मन की कल्पना है ना कलम की लफ्फाजी।सच कहता हूँ,घर के ठीक पीछे वाले पलाश के पेड़ोँ मेँ सारे पत्ते झड़ नीचे कालिन बिछा लेटे होँगे और पेड़ पर टेशू के दमकते लाल फूल ऐसे फूले होँगे मानो प्रकृति ने फाग मनाने के लिए लाल केसरिया शमियाना तान दिया हो।आम के गाछ पर आया मंजर ऐसे गमकता होगा जैसे प्रकृति इत्र छीँटक रही हो और उस मंजर वाले आमपत्ते के झुरमुट मेँ बैठी करिक्की कोयल कूहूँक कूहुँक "विविध भारती"गा रही होगी।सामने हाई स्कूल वाले अहाते मेँ शीशम का पत्ता झर झर कर "राग दुपहरिया" गाता होगा और कचनार के गुलाबी फूल गमक गमक कर खिलखिलाते होँगे।मेरे मुहल्ले से निकलते सटे ही आदिवासियोँ के मुहल्ले शुरू हो जाते हैँ और मिलने लगता है महुआ और सखुआ का बड़ा बड़ा गाछ..फिर पहाड़ तक जंगले जंगल।महुआ मेँ अभी धीरे धीरे फूल आया होगा..एक बार पुरवाई आती होगी तो आदमी नशे मेँ बिन प्याला मतवाला हो जाता होगा।मेरे आँगन मेँ ही बेल का गाछ है।आपने अगर बेल खाया हो और कभी उसकी खुशबु को भीतर खीँचा हो मान लिजिए की मुझे वो कस्तुरी से ज्यादा पागल करता है।अभिये से रोज पाँच सात बेल टप टप खुद ही गिरता होगा और छक के शर्बत चलता होगा घर मेँ।फागुन के ठीक बाद फाग खेला नीम भी कुछ दिन मीठा हो जायेगा जब चैत के आते उसमेँ हल्का हल्का ललहन लिये नरम नरम कोमल पत्तियाँ निकलेँगी।एक ऐसा मौसम जहाँ अभी "सुबह भीमसेन जोशी" और "शाम बिसमिल्ला खाँ" होती होँगी,उसे छोड़ ये दलेर मेँहदी के बल्ले बल्ले टाईप हल्ले गुल्ले जैसे दिन-रात वाले दिल्ली मेँ पड़ा हूँ तो भला काहे ना अफसोस करूँगा।पलाश का फूल पता नहीँ मुझे क्युँ इतना खीँचता है।मेरे बचपन का नाम भी कुछ दिन"पीपल पलाश" था।जब पलाश के पेड़ चढ़ डोल पत्ता खेलने लगा तो नीलोत्पल हो गया।पलाश,मंजर,महुआ शायद इसलिए भी मुझे खीँचते हैँ कि,किसी नक्सल के AK 47 की कोई गोली इन पलाश के फूल को ना झाड़ सकी आज तक,कोई सरकारी घोटाला आम का मंजर या महुआ का फूल नहीँ गटक सकता।हाँलांकि आम से लेकर महुआ और शीशम,सखुआ और सागवान सब लकड़ी माफियाओँ के हत्थे चढ़ कट भी रहे हैँ और काश हम इन्हेँ बचा पाते पर ये जहाँ जहाँ हैँ इनका जादू वही का वही है।हाँ,पलाश का जंगल अभी भी इन कसाईयोँ से बचा हुआ है।एक बार इन लकड़कट्टोँ को खोपचे मेँ लेने का मन है मेरा।कम से कम अपने ईलाके मेँ तो हड़काईये सकता हूँ।खैर जो भी हो..इन दिनोँ आपको पलाश के जंगलोँ को देखने झारखंड जरूर जाना चाहिए..तब मेरी बेचैनी आपको सहज समझ आती।मौका मिले तो देखिये जरूर एक बार आपसब जंगल मेँ जलते ये "पलाश के मशाल"।जय हो।

Friday, March 18, 2016

भारत माता- Bharat Mata

"भारत माता" फिर चर्चा मेँ है।भारत मेँ अचानक लिँगसंवेदी व्याकरण योद्धाओँ का एक वर्ग जागृत हो गया है जो जिसको मन तिसको पकड़ पूछ रहा है"बताओ भारत स्त्रीलिँग है या पुलिँग?भारत जब भरत के नाम पर नाम पड़ा तो फिर माता कैसे हो गया?"इसी तरह के तमाम पुलिँगात्मक तर्क देकर भारत माता को हूरकूच के देखा जा रहा है कि ये माता है या पिता या फिर मौसा या फूफा।ये वर्ग भारत को माता कहने के पक्ष मेँ नहीँ है तथा इससे इनके व्याकरणीय चेतना को ठेस पहुँची है।कुछ पुलिँगसंवेदक बुद्धिजीवि तो अपने जीभ पर पोटाश और निँबु घस उसे खरच कर ऊपर का एक लेयर हटा दे रहे हैँ जिससे बचपन मेँ कभी स्कूल कॉलेज मेँ मुर्ख भीड़ के साथ किसी 15 अगस्त या 26 जनवरी को भारत माता का नारा लगा दिया था।इनकी भी तब कोई गलती थोड़े थी।दशकोँ दशक से भारत को माता कहने वाले इस देश मेँ आज तक कोई साहित्य और व्याकरण का कोई गुढ़ जानाकार पैदा ही नही हो पाया था जो बता सकता कि भारत माता है या पिता।ये तो भला हो इन कुछ बुद्धिजीवियोँ का जो इस घनघोर व्याकरणीय गलती को सुधारने जन्म लिये हैँ और भारत का लिँग निर्णय कर वापस समाधी ले लेँगे।क्या बात है साब:-)आज जब सोचना ये चाहिए था कि हम कैसे"देश" मेँ रहते हैँ,हम सोच ये रहे हैँ कि"हम देश मेँ रहते हैँ कि देशाईन मेँ"।भारत देश है कि देशाईन?माता है कि पिता?ये है 21वीँ सदी के एक मुल्क का विमर्श!कितना लिँगनीय,सोचनीय और साथ साथ खाँटी निँदनीय विमर्श।लेकिन जब विमर्श छेड़ ही दिये हैँ तो सुन भी लिजिए।माँ शब्द का अर्थ जन्म देने से ले के पालने वाली,दुलारने वाली और अपने पूत के लिए सबकुछ सहने वाली के प्रतीक के रूप मेँ है।धरती को माँ कहने के पीछे यही भाव है कि हमेँ इसी के कोख से अन्न,खनिज से लेकर तमाम संसाधन प्राप्त होते हैँ।ये अपनी छाती पर नदी से लेकर पहाड़,जंगल सब लिये हमारी जरूरतोँ को पूरा करती है।यही अपने पालने मेँ हमेँ पालती है।आसमान नहीँ आता हमेँ खड़े होने की जमीन देने।ये धरती का माँ जैसा ही दिल है कि अपनी छाती पे लिये तैरती नदी से इंसानियत को साफ पानी पिलाती है और बदले मेँ उसी इंसानोँ से मिलता है उसे कचरा और जहर जिसे बिना कुछ कहे चुपचाप अपने रफ्तार से ढोहती है।कुछ ना कहती।जिन पेड़ोँ से फल देती है उसी को कटता देखती है।जिन पहाड़ो को प्रहरी बना खड़ा किया उसी को धमाको से चुर होते देखती है।धरती हमेँ कल्याण देती है,जीवन का सृजन करती है और खुद का विध्वंस सहती है।सारे पाप सहती ये धरती अगर अभी तक पूरी फट ना गई है और हम मेँ से आखिरी व्यक्ति तक उसमेँ समा ना गया है तो जान लिजिए कि ये "माँ" का ही दिल है जो सब कायम है,भुकंप,बाढ़,सुखा जैसी डाँटोँ के बावजूद।ऐसी धरती को पापा के जगह माँ कहना ज्यादा उपयुक्त स्वभाविक है और अगर एक देश और देशभक्ति के लिहाज से भी देखेँ तो माँ कहने पर भावुकता का जो उफान उठता है वो किसी भी बाधा से लड़ने और देश पर अपने को न्योछावर करने के लिए ज्यादा प्रेरित करता है।और ऐसा केवल भारत मेँ नहीँ।जर्मनी मेँ भी जर्मनवाद की प्रेरणा "मदर जर्मेनिया" से ज्यादा प्रबल हुई जबकि वहाँ बिस्मार्क जैसे डैडी भी थे जिनकी मुँछ ही हाथी के पूँछ से ज्यादा भारी थी,वो दिखता भी स्पार्टा योद्धा था।फ्रांस द्वारा दिया उपहार, अमेरिका मेँ स्टैच्यु ऑफ लिबर्टी भी स्वतंत्रता की देवी के ही रूप मेँ खड़ी है जबकि वहाँ पापा या देवोँ की कमी नहीँ थी।कुल मिला दुनिया मेँ भारत से इतर भी कई देश सदियोँ से ऐसा करते आये हैँ जहाँ देश या राष्ट्र को माँ स्वरूप मान देश और उसके नागरिकोँ के बीच एक मजबुत भावनात्मक रिश्ता कायम हो सके।अब आओ साब नाम पर।जब माता है तो नाम भरत नाम के लड़के पर कैसे?तो हे अक्ल से हिमालय "लिँगराज डैडीश्वरोँ", आप ये बताईये कि एक महिला आदरणीय पूर्व लोकसभा अध्यक्षा"मीरा कुमार" हो सकती हैँ,कुमारी नहीँ।पुरूष अभिनेता राज किरण,"किरण" हो सकते हैँ किरणा नही।पुरूष सुनील दत्त भवानी सिँह डाकू हो सकते हैँ।"तुलसी" तो सास भी कभी बहु थी की महिला और तुलसीदास नाम के पुरूष लेखक दोनोँ हो सकते हैँ तो ये बताईये एक माता का नाम भरत के नाम पर भारत माता या माँ भारती क्योँ नहीँ हो सकता।भाई साब कम से कम नाम रखने मेँ तो लिँगनिरपेक्षता रहने दीजिए बाकि तो लिँग के आधार पर भेदभाव जारी ही है।साब ये सब चोँचलेबाजी को छोड़ कहीँ उपयोगी जगह पर दिमाग लगाईये।भारत का लिँग तय करने की जगह ये तय करिये कि कहाँ कहाँ लिँग के आधार पर दुनिया कट रही है,आधी दुनिया पीछे छुट रही है।भारत के लिँगनिर्णय को छोड़ उस लिँग अनुपात पर सोचिए जहाँ 1000 पुरूष पर 940 ही महिलाएँ हैँ।60 महापुरूषोँ की जरूरत पर सोचिए महानुभवोँ।सोचिए उस हालात पर जहाँ हरियाणा जैसे राज्योँ मेँ पेट मेँ ही भ्रुणबच्चियाँ मार दी जाती हैँ और आदमी अपने बच्चोँ की मम्मी पैसे दे खरीद के ला रहा है।एक तरफ तो बुद्धिजीवियोँ को सदा शिकायत रहती है कि ये देश अपने ऐतिहासिक परंपरा से ही पितृसत्तात्मक रहा है,ऐसे मेँ जब देश का मानवीकरण माता के नाम पर कर मातृशक्ति का गुणगान करने की परंपरा आई है तो यही बुद्धिजीवि लिँग लिँग लिँगा का भजन गा सबसे बड़े लिँगयोद्धा के रूप मेँ भारत को उसका लिँगाधिकार दिलाने की मुहिम छेड़े हैँ।हम अब इनसे पूछ भारत को माता या पिता का तमगा तय करेँगे।बॉबी डार्लिँग को भी इनसे पूछ कर अपना लिँग परिवर्तन कराना चाहिए था।बंगाल की प्रतिभाशाली एथलिट पिँकी को भी ऐसे ही लिँगाधिकार कार्यकर्ता टाईप बुद्धिजीवियोँ ने पुरूष घोषित करवा दिया था और एक प्रतिभा को निगल गये।भारत माता के स्त्रीलिँग और पुलिँग जाँचने वालोँ..हुजुर आप पर भी हमसब की नजर है।आपसब का भी जाँचा जायेगा।अब आँख मुँद आपका भी थोड़े विश्वास कर लेँगे।नमन आप लिँगाधिकार कार्यकर्ताओँ को।अच्छा जरा सुडान और युगाँडा का भी पता कर बताना जी.ये पापा हैँ कि मम्मी:-)या मौसी कि फूआ।जय हो।

Monday, March 14, 2016

नमस्ते टाटा सदा वत्सले

संघ ने नब्बे साल बाद धोती पहनने की उम्र मेँ आखिरकर हाफ पैँट खोल"फूलपैँट" सिलाया।वक्त से थोड़ा पीछे चलना उनका अपना मैटर है,उनका अपना दर्शन है वो जाने।मेरा तो बस इतना मतलब था कि ये परिवर्तन काश 15-17 साल पहले हो गया होता।उन दिनोँ न जाने कितनी जाड़े की सुबह मैँने ठिठुरते पुरा गोड़ उघारे काँप काँप कर शाखा लगवाया।तीन तीन यूकेलिप्टस के पेड़ ताप गये जला के हम अपने संघी कैरियर मेँ।तब आसपास बस्तियाँ ना जला करती थीँ जहाँ आप अपने हाथ सेँक पायेँ।जब कभी शिविर लगता और हम संध्या फेरी के लिए बाजार हो के गाँव निकलते तो ये बिना नाप का हाफ पैँट पहिने और शर्ट अंडरशर्टिँग किये बड़े लजाते थे,करिया टोपिया से मूँह ढक लेते थे और लाठी जमीन पर घसीटते आगे बढ़े जाते थे।पैँट मेँ लगा बटन इतना विशाल था कि बैलगाड़ी मेँ पहिया बना के लगा सकते था कोई।अच्छा गर्मी मेँ शिविर मेँ हाफ पैँट पहिन सोना सजा ही था,जब धर्मशाला की नालियोँ से आये मच्छर रात भर घुटना से लेकर तलवा तक भभोँर मारते।सुबह प्रचारक बलराम जी जगाते वक्त भी लठिया वहीँ कोँचते जहाँ हाफ पैँट का एरिया खतम होता है,यानि एकदम घुटने से ठीक एक बित्ता ऊपर।संघ मेँ हमेँ बताया गया था कि पूर्ण प्रचारक आजीवन अविवाहित रहते हैँ।हम बाद मेँ समझे कि जीवन भर हाफ पैँट और उसमेँ भी एक ही रंग का हाफ पैँट पहनने वाले लड़के अथवा आदमी को भला कौन अपनी बेटी देता।सोचिए न मड़वा पर बनारसी साड़ी मेँ गहनोँ से लदी दुल्हन के साथ हाथ मेँ लाठी लिये हाफ पैँट पहने दुल्हा सात फेरे लेते कैसा लगता।खैर चलिए बदलाव जब आया तब ही सही,स्वागत है।बस यही सोच रहा था कि मेरे टाईम भी अगर फूलपैँट होता तो शायद मैँ कुछ दिन और टिकता संघ मेँ।अब वापस जाने का कोई मतलब नहीँ..क्योँकि हम अब जिँस पहनने लगे हैँ।फूलपैँट से आगे निकल गया हूँ...नमस्ते टाटा सदा वत्सले।जय हो।

Art of living

आदरणीय श्री पर फेर श्री,श्री श्री रविशंकर जी, प्रभु आपका जन्म तो पृथ्वी पर ईश्वर के उस अधुरे काम को पुरा करने के लिए हुआ है जिसे आलसी ईश्वर आधे मेँ छोड़ गया था।ईश्वर ने हमेँ जीवन तो दे दिया पर"जीने की कला" सिखाये बिना छोड़ के निकल लिया।बाद मेँ उसे जब याद आया कि हाय मानव को हम जीवन तो दे आये पर वो जीता कैसे होगा?जीने की कला यानि"Art of living" तो हमने सिखाया ही नहीँ..अब क्या किया जाय?तब बड़े मैराथन बैठकोँ के बाद श्री ब्रह्मा और श्री कृष्ण या श्री राम के जगह आपका नाम तय हुआ और इस भारी काम का लोड आपकी काया पर डाल दिया गया।अन्य क्षमताओँ के साथ साथ आप पर यकिन का एक कारण ये भी था कि आपके नाम मेँ दो बार "श्री"लगा था सो आपके इस "श्रीयसनेस" ने आप पर जिम्मेदारी बढ़ा दी।खैर आप आये धरती पर..आपने देखा मानव मेँ प्राण तो है पर जीने का तरीका बिलकुल नहीँ।सब कुछ पाषाणकालिन,आदिमयुग के जैसा।आपने देखा राष्ट्रपति भवन मेँ गाय बँधी है।संसद मेँ जूता दुकान खुला हुआ है।कॉलेज मेँ थियेटर चल रहा था।इंसानो ना खाने का तरीका आता था न किसी को कपड़े पहनने का।घरोँ के डायनिँग टेबुल पर बैठ घोड़े पनीर खा रहे थे आदमी गौशाला मेँ गर्दन मेँ रस्सी बाँधे नाद मेँ घास खा रहा था और फिर अपने किये गोबर से गोयठा बना उसे सुलगा उस पर तावा चढ़ा उसमेँ पाउडर गर्म कर रहा गाल पर लगाने के लिए।कोई दाल मेँ केला बोर के खा रहा था और कोई हथेली मेँ भात और आईसक्रीम सान के खा रहा था।एक को तो आपने जब कटहल की खीर के साथ लकड़बग्घे की पूँछ का अँचार खाते रोका तो उसने उल्टे आपको खाने बैठा आपके लिए एक बाल्टी लगाई,ड्रम मेँ पानी भर के दिया और आपके लिए भर बाल्टी कच्चे बकरे की चिप्स के साथ अलकतरे का सूप सर्व किया।आप अकबका गये।आपने देखा कि कुछ तो हाथ की जगह लात से खा रहे हैँ और चप्पल हाथ मेँ पहने हैँ।कुछ पर पेड़ पर चढ़ नारीयल मेँ डायरेक्ट मुँह लगाये हुए थे और तरबुज सीना से दबा चुर कर उसका मसाला वाला भुजिया बना के खा रहे थे।खाना तो खैर छोड़िये जो हुआ सो हुआ।आदमी को कपड़े पहनने का ढंग नही था।लोग फूलपैँट की जगह सागवान का पत्ता पहनते थे और शर्ट की जगह नीम का झाड़ लटका लेटे थे।बेल्ट की जगह बाँड़ु साँप बाँधते थे और छोटे बकलस के शौकिन पतला हरहरिया साँप पहनते थे।बड़े बड़े नेता बघछल्ला पहिन संसद आते थे।दुल्हा शेरवानी की जगह भैँस की छाल का जैकेट और बुजुर्ग ससुरे एवँ समधी भेँड़ के चमड़े की वुलेन चादर ओढ़ते थे।दुल्हनेँ मेकअप मेँ भभूत घँसती थी और होँठ पर लाल अढ़वल का फूल घस लेती थीँ।हड्डी की चुड़ियाँ,खरगोश के बच्चे के चमड़े का पर्स ये सब देख आप बौरा गये।युवतियाँ अंगुर खाने की जगह कान मेँ पहनती थीँ और नाक मेँ लौँग की नथिया गाँथ लेती थीँ।अच्छा लोग आपस मेँ बातचीत भी करना नहीँ जानते थे।हर बात मेँ लोग भाई माई बहन बेटी एवं रोटी कर रहे थे।संस्कार नाम का कोई चीज नही था।बेटा बाप की छाती पर चढ़ फेसबुक चलाता था।खैनी ना देने पर एक दुसरे का गर्दन काट लेना आम बात था।लोग सब कुछ उल्टा पुल्टा कर रहे थे।पंखा धरती मेँ गाड़ देते और खटिया ऊपर कड़ी मेँ टाँग देते।साफ पानी से मोबाईल और टीवी धोते थे और पोखरा मेँ पहले भैँस घुसा पानी घिँटवा लेते तब उस कादो वाले पानी से नहाते।एक भी ऐसा मानव न था जिसको जीने की कला आती थी।आप समझ ही गये थे सारा कंडिशन।आखिरकार आपको यही सुधारने तो भेजा गया था। आपको एक बड़ा परिवर्तन करना था।सोचा"हे भगवान कितना कुछ सिखाना होगा मानव को..एक दो साल मेँ नहीं फरियायेगा और इसमेँ बजट भी बड़ा चाहिए।सेना और सरकार सबकी मदद भी लेनी पड़ सकती है।"और बाबा आखिरकार संसार का हो या ना हो पर भारत का सौभाग्य कि इसकी शुरूआत आपने भारत से ही की।आपका आना,दिल धड़काना..प्यार आ गया हो बाबा प्यार आ गया कसम से।बाबा मैँ भाग्यशाली हूँ कि मैँ आपके युग मेँ पैदा हुआ और अब मैँ जीने की कला सीख पाऊँगा।मैँ अपने पूर्वजोँ की भाँति बिना कलाकारी के जिये नहीँ मरूँगा।बाबा आईए,हमारे गाँव भी आईए बाबा।हमेँ भी जीने की कला जल्द सिखाईये।बाबा आज तक हम जिया धड़क धड़क पर टाँग हिला के नाचते रह गये पर आपसे जाना कि उस गीत का मूल मर्म है"दोनोँ हाथोँ से गोल गोल कर छोटा छोटा जिया बना के कंधे उचका नजाकत से कमर हिला महिलाओँ-पुरूषोँ मेँ गुलाब फेँकना"बाबा जीने की ये कला हमको भी सिखाईये न बाबा।बाबा आप इसी तरह मानवता की सेवा करते रहेँ..खाने,कमाने और खट खट के मर जाने वाली पीढ़ी को जीने की कला सिखाते रहेँ।ये,राम,कृष्ण,बुद्ध,महावीर,नानक,कबीर,औलिया,बाबा फरीद,सूर,तुलसी से लेकर विवेकानंद और गाँधी तक सबने तो बस टाईम पास किया।न खुद जीना जाने ना कुछ सिखाया।जीने की कला तो आप सिखाते हैँ बाबा।बाबा दिल्ली मेँ एतना बड़ा मेला लगाये हैँ,तब न शहर के लोग जीने की कला सीख लेते हैँ और फिर हम गाँव के लोग को पिछड़ा बोल चिढ़ाते हैँ।सो बाबा प्लीज गाँव भी आईए न।हमलोग का यही एक ठो निवेदन था आपसे।धड़काईये न तनी यहाँ भी जिया।जय हो।(नोट-पोस्ट मेँ कहीँ कहीँ विभत्स रस चरम पर है,सो पढ़ने वाले अपनी गारंटी पर पढ़ेँ।कोमल दिल वाले परहेज करेँ:-D)जय हो।

Thursday, March 10, 2016

Defination of Deshbhakti

हमेँ मोटे मोटे विमर्श,मोटी मोटी किताबोँ से बात कम समझ आती है।मैँ समझदारी सीखने के लिए गाँव देहात की सँकरी पतली पतली गलियाँ घुमता हूँ।चौड़े चौड़े खेत और भरे भरे जंगल घुमता हूँ।दर देहात मेँ दुआर के चौखा पर बईठे बीड़ी फूँक रहे बुढ़े बुढ़ियोँ से लेक्चर सुनता हूँ।यही मेरे मन के संस्थान हैँ।इन्हीँ कक्षाओँ मेँ सुनी एक कहानी याद आयी है।दशकोँ पहले हमरे गाँव मेँ दो जिगरी डकैत दोस्त हुआ करते थे..एक था अदुआ और दुसरा जब्बार मियाँ।एक बंगाली पंडित था और दुसरा मुस्लिम।इन दोनोँ डकैतोँ का इलाके मेँ तो नाम था ही साथ साथ उत्तर बिहार के सीमा से ले बंगाल तक के डकैती नेटवर्क मेँ इनका जलवा था।परिवार के नाम पर अदुआ का कोई ना था जमाने मेँ,बस एक बुढ़ी विधवा माँ थी जो रोज सदा भगवान की चौखट पर बैठी रहती कि बेटा जीता रहे.डकैती छोड़ कुछ कमाये धमाये,एक अच्छी जिँदगी जीये।अदुआ शरीर से बाबर था और क्विँटल भर धान का बोरा पीठ पर ले दस ईँच के दिवाल पर चल लेता था और तीन मंजिले जितनी ऊँचाई से वो वैसे मजे मेँ कुदता था जैसे आज के हीरो रजाई मेँ कूदते हैँ।अदुआ के पास बलशाली बदन था तो एक ठोस चट्टानी वसुल भी था।उसने कभी अपने जीवन मेँ अपने गाँव और आस पास डकैती ना की।उसने अपने संपर्क के सारे ज्ञात डकैती टीमोँ को भी साफ कह रखा था कि न तो वो अपने गाँव ईलाके मेँ डकैती करेगा और ना किसी को करने देगा।उसके जिँदा रहते मेरा गाँव वैसे ही निश्चिँत हो सोता था जैसे सीमा के जवान के कारण ये देश बेफिक्र सोता है।मेरे गाँव कोई पुलिस थाना न था।सुरक्षा के नाम पर थे भी तो दो हाफ पैँट वाले दतुवन से दिखते चौकीदार जो डंटा घर रख चलते थे कि कोई उन्हीँ से डंडा छिन उनको ही ना धो दे।हमारे गाँव की सुरक्षा की गारंटी था तो "अदुआ डकैत"।मेरे बाबा ने बताया कि एक बार वो एक दिन सुबह उठे तो देखा आँगन वाले बरामदे की खुँटी मेँ टँगा उनका नया सिल्क वाला ढीला कुर्ता गायब था।समझ गये चोरी हो गया।एक दिन बाद दोपहर अखबार मेँ कुर्ता लपेटे अदुआ हाजिर हो गया।बाबा देख अकबका गये"ई का है अदुआ"।अदुआ ने हाथ जोड़ माफी माँग हँसते हुआ कहा"अब माफ करियेगा पाहुन।अरे कल एक ठो बिहा मेँ जाना था बल्लु डकैत के बेटी के बिहा मेँ, सो सोचे आपका बाला सिल्क ठीक रहेगा।तनी चमकेँगे।परसोँ आपको पहिने देखे थे हटिया मेँ त पसंद आ गया।का बतायेँ,ले गये लेकिन छोटा हो गया साईज मेँ।बिना पहिने ही लौटा रहे हैँ।जल्दी जल्दी मेँ सेठ जी का कुर्ता निकाले तब गये बिहा मेँ।उनका भी लौटाने जा रहे हैँ।"ये था अदुआ का समाजवाद।खैर ये अलग विडंबना से भरी एक क्रुर कहानी है जिस गाँव की सुरक्षा से अदुआ ने कभी किसी लालच मेँ कोई समझौता ना किया उसी गाँव ने एक बार उस पर गाँव मेँ हुए एक भीषण डकैती का आरोप लगाया।ये जान अदुआ गाँव छोड़ निकल गया।गाँव के कुछ बुजुर्गोँ ने उसे अपने भरोसे मेँ लिया और अदुआ ने ये वादा किया कि वो डकैतोँ का पता लगा लेगा कि किसने किया और माल भी वापस लायेगा।गाँव के बुजुर्गोँ और लोगोँ पर भरोसा कर वो वापस जैसे गाँव आया सबने उसे धोखे से पकड़ा और एक कुँए के पीड़ पर ले जा पत्थर से कुचल कर मार डाला।वो अदुआ जो गाँव के लिए मर जाने को तैयार रहता था गाँव मेँ मार दिया गया।लेकिन अपने जिँदा रहते अपनी औकात भर उसने गाँव की सुरक्षा से न कभी समझौता किया ना किसी को डाका डालने दिया।ये था उसका गाँव इलाके से प्रेम और लगाव।उधर जब्बार मियाँ निशाने मेँ जसपाल राणा पर भारी था,रात के अँधेरे मेँ भरी भीड़ मेँ भी देशी पिस्टल से गोली दागता और लगती उसी को जिसकी सुपारी वो मुँह मेँ चबाये रहा होता था।बम बनाने का खिलाड़ी और चलते चलते बम बाँधने का माहिर।एक हाथ धरे लुँगी मेँ बम जमा रख एक हाथ से लगातार बम वैसे पटकता था जैसे आप बारात मेँ सुस्ताते ताश खेलते वक्त लाल पान का एक्का आ जाने पर जोश मेँ पत्ते पटकते हैँ।उसका भी वसूल मुसल्लम था,बुलंद था।उसने भी कभी अपने गाँव से गद्दारी ना की।एक बार वो टीम के साथ भागलपुर के पास बस लुट रहा था।बस मेँ मेरे गाँव के भी दो लोग थे।यकिन जानिए सुबह वो उन दोनोँ का लुटा माल ले के गाँव आया और लौटाया।साथ ही बोला कि,इस रोड मेँ कभी भी लुटाओ तो बता देना,सामान वापस मिल जाया करेगा।अंत समय मेँ एक बार बम बाँधते उसका एक हाथ उड़ गया और आँखोँ की रोशनी चली गई।अब उसके पास एक ही रास्ता था कि बाहर के डकैतोँ के लिए स्थानीय मालवाले घरोँ की मुखबरी करे और लुट के बाद अपने घर मेँ आश्रय दिया करे।बदले मेँ उसे उसका हिस्सा मिल जाता।लेकिन जब्बार मियाँ ने उसी गाँव मेँ भीख माँग बाकि जीवन गुजारा पर कभी गाँव से गद्दारी ना की।कहना बस इतना था साब कि,भले ये दोनोँ डकैत थे,पर अगर ये देश आपको अपना गाँव लगे तो प्लीज एक बार मेरे गाँव के अदुआ और जब्बार मियाँ की नजर से गाँव देख के देखिये आपको"देशभक्ति"-"राष्ट्रभक्ति" सबकी परिभाषा समझ आ जायेगी।इसका अर्थ समझ मेँ आ जायेगा।इसकी खातिर हर कीमत चुकाने का जज्बा समझ मेँ आ जायेगा।वतन पे मरने वालोँ को यूँ ही शहीद नहीँ बोलती दुनिया।बड़ा जिगरा चाहिए।आईए एक बार अदुआ और जब्बार की नजर देखिये..कहाँ आप देशभक्ति को डिबेट और विमर्श से समझने और समझाने मेँ लगे हैँ।हमारी कम पढ़ी लिखी दुनिया मेँ तो इसका अर्थ डकैत अदुआ-जब्बार भी समझा के चले जाते हैँ।जय हो।

Art of Living

हे संत शिरोमणि!ये "आर्ट ऑफ लिविँग" क्या है?बेटा "आर्ट ऑफ डीलिँग" ही "आर्ट ऑफ लिविँग"है।हाँ बेटा जहाँ मौका मिले डिलो,जिसको तिसको पकड़ के डिलो,हर टॉपिक पर डिलो,जो जानो उस पर डिलो,जो ना जानो उस पर भी डिलो,हिल हिल के डिलो,हँस हँस के डिलो,दोनो हाथ ऊपर भी कर डिलो,एक नीचे एक ऊपर भी कर डिलो,कभी गर्दन हिलाय डिलो,कभी कँधवा उचकाय डिलो..डिलो बस डिलो बेट,.इस तरह डिलिँग कर खाने कमाने भर जुगाड़ कर लेना ही"आर्ट ऑफ लिविँग" है।यही कर कोई नेता हुआ कोई बाबा।जाओ तुम्हेँ भी आशीर्वाद..भयंकर आशीर्वाद।वैसे तुम करते क्या हो बेटा?बाबा हम UPSC की तैयारी करते हैँ।इतना सुना कि बबवा जी भड़क गये"दुष्ट लड़का मजा ले रहे थे मेरा।अबे तुम लोग खुद ऐतना बड़ा डिलिँगबाज होता है रे,भाग हमारा धंधा मेँ डंडा करने आये हो।रोज चाय दुकान पर ये डिलिँग ही तो करते हो बे"।मैँ हा हा ही ही करले चाय दुकान पर आ गया हूँ।जय हो।

Wednesday, March 9, 2016

महिला दिवस- Women Day

बड़े वैचारिक ताम झाम एवं गंभीर विमर्शोत्सव के साथ कल "महिला दिवस"पर्व समाप्त हुआ।सबसे ज्यादा उत्सवधर्मिता फेसबुक पर दिखी जहाँ नारियोँ ने अपने लिए सेल्फ डिपेँडेँड पोस्ट लिखे और पुरूषोँ ने उनके लिए भरोसे भरा पोस्ट लिखा।कई पुरूष तो नारित्व के सशक्तीकरण को लेकर इतने भावुक थे कि वो उनसे लिपट जमाने से टकरा सारे हक छिन उनकी हथेली मेँ धर देना चाहते थे पर अफसोस कि फेसबुक पर ये भौतिक कांड संभव ना था।जी देखिये ह आज के युग मेँ पैदा हुए।हमने प्राचीन काल का वो दौर सपने मेँ भी नहीँ देखा जब किसी शास्त्र मेँ कहा गया कि विधवाओँ के सर मुंड देने चाहिए।हम मध्य काल के उस दौर की कल्पना से भी अछुते पीढ़ी के हैँ जब बादशाहोँ के मीना बाजार मेँ औरतोँ को बेचा जाता था और लोग मंडियोँ से जिँदा जिस्म खरीद ले जाते थे।हम सबने ये सब काला सच इतिहास की किताबोँ मेँ पढ़ा और अच्छा था कि पढ़ा जिससे हम जान पाये कि हम सभ्यता के विकास अब कितना आगे आ चुके हैँ,हमेँ ये आत्मविश्वास मिला कि हम अब उन बुराईयोँ से करोड़ोँ मील आगे निकल एक अच्छी दुनिया के रचे जाने के दौर मेँ हैँ और ऐसा रचा भी जा रहा है।हम आज के इंसा हैँ।पर ऐसा नहीँ कि हम शोषणविहीन दौर मेँ हैँ और हमने पीड़ा और अत्याचार ना देखा है।मैँ गाँव का आदमी ऊपर से बिना डिग्री का आम सोच का लड़का।हमारे लिए शोषण का अर्थ बस शोषण था और ये लिँगनिरपेक्ष था जिसमेँ हमने बाहुबली प्रमुखोँ के सामने एक गरीब आदमी को थुक चाटते भी देखा और किसी दरवाजे पर बाल खीँच लात खाती औरत को भी।हम ये कारण ना जाने कभी कि दोनोँ के हालात के पीछे इतिहास कितना है,क्या समाजशास्त्र है और कितना मनोविज्ञान है और कितना अर्थशास्त्र।ये सब कारण और कारक तो हम अब UPSC की तैयारी मेँ किताब पढ़ जाने और बस रट के याद रखा।हाँ हम जब भी किसी ठेला चलाने वाले को सिँह जी के हाथ लात खाते देखते तो एक बात ही दिमाग मेँ आती कि"क्या करियेगा..गरीब है ईहे खातिर कोय भी लतिया देता है"।उसी तरह जब किसी महिला को पीटाते देखते तो कहते"साला इसका मरद दोगला है,रोज दारू पी के कमीनापंती करता है।ना साला पढ़ा लिखा ना कोय संस्कार है इसको,जहाँ शिक्षा नय होगा उहाँ यही न होगा"।अच्छा हमने गाँव मेँ बस लात खाती महिलाओँ को नहीँ देखा बल्कि कुछ कमाल की लतियाती भी थीँ।इनके नाम से मुहल्ले की सीमाएँ हिलतीँ।एक थी "हुमड़ी माय",इसके खौफ का आलम वैसा था जैसे रामगढ़ मेँ गब्बर का।हुमड़ी माय के घर के बगल मेँ पड़ी जमीन आज तक उसका मालिक ना बेच पाया क्योँकि वो जाड़े मेँ दिन मेँ और गर्मी मेँ रात खटिया बिछा गदरगोष्ठी करती,सोती,गाय बाँधती।बात बात मेँ घर से हँसुआ निकाल जब साड़ी का फेँटा एक तरफ बाँध वो टॉरनेडो की रफ्तार मेँ गाली देती बाहर निकलती तो क्या मजाल कि कोई मर्द टिक पाये।गाली देने मेँ उतनी ओजस्विता मैँने दुसरी किसी मेँ न देखी।वो गालियोँ की मौलिक जन्मदात्री थी।उसके बनाये गये गाली आज भी समाज के बड़े बड़े झगड़ोँ मेँ सबसे ज्यादा काम आते हैँ। उसके विरूद्ध शिकायत की कोई सुनवाई प्रधान या प्रमुख भी नही करते क्योँकि वो दरवाजे पर चढ़ सीधे बोलती"आप हमरा फैसला का करियेगा परधान जी,आपका सब कारगुजारी खोल देँगे त मुँह अलकतरा जैसन करिया हो जायेगा"।मुखिया हाथ जोड़ कहते"हे चाची मार के इँटा माथा फोड़ दो पर इ बाप दादा और हमरी कहानी सुना इम्मेज ना तोड़ो।ऊका छोड़ दो"।एक बंगाली परिवार की मालकिन थी"जुबली देवी"।इनके पति पद्मनंदन मुखर्जी।अगर जुबली देवी ने पति को सुबह आठ बजे कुर्सी पर बैठने बोल दिया तो वो तब ही उठते जब जुबली देवी बोलतीँ"जाईए टिफिन हो गया।खाना खा लो"।मुखर्जी का किसी से झगड़ा हो जाय तो चश्मा सँभालते मोबाईल निकाल कहते"ठहरिये,आप हमको मारा।अभी बोलाता है हम आपना वाईफ को।तब बतायेगा तूमको ओकात मेरा"।इस बंगाली परिवार से गाँव के लोग दुर्गा पूजा का चंदा लेने भी कभी ना जाते और वो कहते"उसके घर का लिजिएगा चंदा महराज।ऊहाँ त साक्षात जिँदा भद्रकाली रहती है"।एक थीँ आँगनबाड़ी मेँ किसी तरह काम कर कमाती"गिरजा देवी"।इनके पति बेरोजगार।जब मूड खराब होता तो गिरजा देवी पति धरनीधर जी को उठा उठा के पटकतीँ।कई बार धरणीधर के रोटी गोल ना बेल पाने के कारण गिरजा देवी बेलना से धरणीधर को पीट लंबा सुला देतीँ।एक बार धरणीधर घर मेँ अकेले थे।अपने तमाम हमउम्र हाफ सेँचुरियन टीम को बुला वीसीडी पर गुड्डु रंगीला का भोजपुरी एलबम"पटाखा बा जवानी" देख रहे थे।तब तक गिरजा जी का अचानक प्रवेश हुआ।बुढ़वे साथी तो खिसक लिये पर झाड़ू से धरणी जी धर तब तक पीटा जब तक झाड़ू के सारे सिक ना झड़ गये।ये थीँ मेरी कुछ विलेज चैँपियन महाशक्तियाँ।सो हम संतुलित परिवेश मेँ पले बढ़े जहाँ नारी पिछड़े का शिकार तो है पर सहानुभूति की भुखी नहीँ,उसे किसी की दयाभीख ना चाहिए।उसमेँ ताकत है,हिम्मत है,जिद है,जज्बा है पर वो फिर भी गँगाजल के आभा माथुर की तरह सशक्त नहीँ।क्योँ?क्योँकि वो पढ़ के IPS थोड़े बन पायी।हूमड़ी माय,जुबली देवी,गिरजा देवी सब अपना घर चलाने वाली महिलाएँ थीँ,सबके पति निखट्टे नकारे।पर वो चंडिका की जगह समाज मेँ चंडाल कहाती हैँ,लोग परहेज करते हैँ उनसे।बस इसलिए कि वो पढ़ी लिखी ना थीँ।नही तो क्या पता कि उनमेँ से कौन आज किरण बेदी होती और उनके तेवर उससे भी ज्यादा धारदार।सो ये पुरी दुनिया अपने नारीवादी विमर्शोँ से नारी को कुछ दे ना दे ,इसे दे सकते हैँ वो माँ बाप जिनके घर मेँ बच्ची है और आपको तय करना है कि आप उसे घर बर्तन धुलवाना,खाना बनवाना चाहते हैँ या पढ़ा के मशाल बनाना।आप तय करेँगे कि आप उसे हुमड़ी माय बनाना चाहेँगे कि किरण बेदी।बाकि सब अधिकार है संविधान मेँ और जो बाकि है वो भी हो जायेगा,आप बस एक ही ध्येय बनाईये कि"बेटी को पढ़ाईए जरूर"।दहेज की जमा पूँजी शिक्षा मेँ लगा दीजिए।ना पढ़ाने के विध्वंस से अच्छा है पढ़ाने के खतरे उठाना।क्या पता शायद जरूरत ही ना पड़े दहेज की।उन तमाम माँ बाप को नमन जिनकी बच्चियोँ को मैँ देख रहा हूँ आँखोँ के सामने दिल्ली मेँ IAS की तैयारी करते।ये माँ बाप ही करेँगे आधी दुनिया को सशक्त,विचारक नहीँ।जय हो।

Thursday, March 3, 2016

घर घर नासिर,आमिर,हामिद पैदा करिये

उत्तर प्रदेश के कानपुर के पास का एक छोटा सा कस्बाई गाँव"छिबरामऊ"।यहाँ रहता एक परिवार।पिता प्राईमरी के शिक्षक और उनके हैँ तीन बेटे-आमिर खान,हामिद खान,नासिर खान।अब आईए एक सुखद शानदार प्रेरणादायी समाचार पर।कल जब उत्तर प्रदेश लोक सेवा संघ के द्वारा 2015 का अंतिम परिणाम घोषित हुआ तो न जाने कई बुझे चिरागोँ मेँ लौ लौट आई,कई लौ से ज्वाला बने पर एक ऐसा परिवार भी इस परिणाम से सामने आया जो मिशाल की मशाल बन के निकला है।जी हाँ कल आये परिणाम मेँ इन तीनोँ के तीनोँ भाईयोँ ने PCS मेँ सफलता प्राप्त की।एक तरफ जब सच्चर समिति की सिफारिशेँ अपने सच मेँ लागु होने के लिए इंतजार मेँ है,एक वर्ग जब मुसलमानी समाज के पिछड़ेपन को अपने राजनीति का सुरक्षित कच्चा माल बनाये रखने को तत्पर है और एक वर्ग जब अफजल गुरू मेँ पीढ़ी का नायक देखता है ऐसे मेँ इस परिवार ने बताया है कि सफलता किसी सिफारिश और किसी विचारधार के रंग से नहीँ लगन,मेहनत और ईमान के रंग से निखर निकलती है।कहाँ है सोशल मीडिया की खोजी नजर,जहर फैलाने वाले हजार समाचार हैँ पर मुह्ब्बत की एक लाईन भी नदारद है।दादरी,मालदा पर सौ गढ़े अनगढ़े सूत्र हैँ पर "छिबरामऊ" नही आ पाता सोशल मीडिया के मुख्य धारा मेँ।तोड़ने वाले सैकड़ोँ वीडियो का जुगाड़ है पर जोड़ने वाली एक भी कहानी खोजे नही मिलती। साब दिन भर मकबुल भट्ट और अफजल गुरू के नायकत्व को अपने तर्कोँ से मजबुत करने की मुहिम की जगह ऐसे युवकोँ की कहानियाँ,उनके संघर्ष और सफलता का पर्चा बाँटिये लोगोँ मेँ तो एक सुंदर समाज रच पायेँ शायद।घर घर अफजल पैदा करने के जज्बात को मारिये और घर घर नासिर,आमिर,हामिद पैदा करिये..ये देश अफजल से नहीँ नासिर और हामिद से बना है और बनता रहेगा।जय  अच्छा अगर नासिर,आमिर हामिद बनना है तो यहाँ देखिये जय हो।

"बजट" Budget

सपने,भविष्य और आँकड़ोँ से भरी वह किताब जो सत्ता पक्ष को सदा अच्छी,विपक्ष को सदा बुरी और जनता को कुछ नही लगती है उसे "बजट"कहते हैँ। जय हो।

दुर्गा-महिषासुर Durga Mahishasura

प्रिय मित्र लल्टु, कल ही गाँव से लौटा हूँ।तुम्हारे घर पर भी सब ठीक है।चाची(तुम्हारी माँ) ने तुम्हारे लिए पंडी जी से जन्मपत्री दिखाई थी,फिर कहने पर दुर्गा पूजा कराया।तुम्हारे नौकरी चाकरी के लिए परेशान है।तूम्हारे खातिर पूजा का प्रसाद और हवन का भभूत भेजा है,शाम को जब गाँजा खरीदने कैँपस से बाहर निकलो तो बताना हौज खास मेट्रो पे आ दे दूँगा।मित्र अब माँ तो माँ ठहरी,उसे मैँने ये बताना उचित ना समझा कि तूम अब महिषा जी के साथ हो गये हो,उनको इसका ऐतिहासिक और समाजिक न्यायिक कारण समझाने मेँ एतना देर लगता कि मेरा ट्रेन छुट सकता था और शायद तब भी आकंठ दुर्गाभक्ति मेँ डुबी वो अनपढ़ बुढ़ी माँ महिषा जी के सामाजिक न्यायिक पक्ष को समझ पाती कि नहीँ,पता नहीँ।खैर तुमने अच्छा किया कि एक नया खेमा धर लिये हो।इतने साल तक साथ साथ दुर्गा पूजा कर भी हमने कौन सा तीर मार लिया,रेलवे मेँ गैँगमैन तक का भी तो फार्म ना किलियर हूआ।तो अब क्युँ ना एक बार महिषा ट्राई किया जाय।दोस्त मैँ तुम्हारे साथ हूँ।लेकिन अब जब खुल्लमखुल्ला महिषा जी के साथ हो तो इन्हेँ समाज मेँ अधिक से अधिक मान्यता दिलाने और स्थापित करने के लिए थोड़ा मेहनत भी करना होगा,ये साल भर मेँ एक दिन शहादत दिवस मनाने से कुछ ना उखड़ना लल्टु भाय।उल्टे डिमोरलाईज फिल होता है।देखो हमेँ वो प्वाईँट पकड़ना होगा जिससे दुर्गा या अन्य देवी देवता ने हजारोँ साल से अपना मार्केट जमाया है।देखो ये दुर्गा समर्थक अपने बाल बच्चोँ का नाम भी दुर्गा,भवानी,शारदा इत्यादि रखते हैँ जिससे रोज पुकारने बोलने से ये नाम जेहन मेँ रहे और प्रभाव बना रहे।अब हमेँ भी अपने लोगोँ का नाम महिषासुर,भैँसचढ़ा,लमबलवा,ईत्यादि रख इस नाम को प्रचलित कर इसे मान्यता दिलानी होगी।सोचो कोई लड़का पीएचडी कर निकलेगा और नाम होगा "डॉ महिषासुर मंडल",कोई प्रोफेसर होगा "भैँसचढ़ा चौबे"।कितना जादुई बौद्धिक छवि बनेगा तब महिषा जी का।अच्छा जैसे ये दुर्गा खेमे वाले अपने मेँ कहते हैँ"फलना दुर्गा जैसी सुंदर है,देवी लगती है",हमेँ भी अपनोँ के बीच महिषा जी की आकर्षक छवि गढ़नी होगी और एक दुसरे को बोलना होगा"महराज केतना सुंदर लड़का है,एकदम महिषासुर लगता है,दाँत देखिये,लगता है दाँते से नारियल फाड़ देगा"।अच्छा जिस तरह दुर्गा खेमे वाले अपने देवी गुणगान के लिए दुर्गा चालिसा,सप्तशती और आरती वगैरह लिखा है हमेँ भी कुछ नया लिख लॉँच करना होगा।जैसे चालिसा कुछ ऐसा लिखा जा सकता है"महिषा सोये थे खा के मुर्गा,सुतले मेँ त्रिशुल भोँक गईँ दुर्गा।।महिषा को कंफ्युजन भारी,घर घुसी कैसे ये नारी।।महिषा ने गुस्से मेँ देखा,दुर्गा ने सुदर्शन फेँका।।महिषा को हुई चिँता भारी,एतना पावर मेँ कैसे एक नारी।।महिषा ने एक चाकू निकाला,दुर्गा ने तलवार और भाला।।दुर्गा बोली तू शांति भंग करता है,लेडिज को तंग करता है।।बोले महिषा आरोप है झुठा,इस हफ्ते तो ना किसी को लुटा।।महिषा तू बामपंथ समर्थक,काम करता है खाली निरर्थक।।महिषा बोले रह होश मेँ देवी,वर्ना वसुलूँ जगत से लेवी।।भले दे त्रिशुल मेरे कंठ पर,वार ना करना बामपंथ पर।।ऐ नारी ले काम अकल से,सोये मेँ मारे है छल से।।ऐ महिषा अब होश मेँ आजा,खड़ी यहीँ हूँ जा मुँह धो के आजा।।तू पुरूष मारे है बल से,मैँ मारी तो बोले छल से।। मित्र लल्टू कुछ ऐसा चालिसा लिख हम महिषा जी के प्रति सहानुभुति और उनकी वीरता का भोकाल बना दुर्गा को छल से मारने वाली साबित कर उन्हे बैकफुट पर धकेल सकते हैँ।अच्छा एक मेन बात कि दुर्गा खेमा उन्हेँ अपनी माँ बता जय माता दी टाईप टैग लाईन लगाये रहता है,क्युँ ना हम भी महिषा जी को एज ए फादर लॉँच कर "जय पप्पा जी" टैग लाईन बना लेँ।अच्छा ये लोग दुर्गा जी के बारे मेँ कई मिथक जुटा उनको गुणकारी,शक्तिशाली,विद्वान,नैतिक दिखाने वाला ग्रंथ रचे हैँ।इसके जवाब मेँ हमको भी कुछ झुठ साँच जोड़ एक महिषासुत्त रचना होगा जिसमेँ किस्सा होगा"महिषा एक बहुत ही भोला भाला सीधा नौजवान था जिसका सारा ध्यान अपने कॉलेज की पढ़ाई पर रहता था।एक दिन कॉलेज जाते वक्त उसे रास्ते मेँ कुछ लड़कियोँ ने छेड़ दिया।उसने तुरंत कॉलेज जा रोते हुए प्रिँसिपल से उन लड़कियोँ की शिकायत कर दी।इसी बात से क्षुब्ध लड़कियोँ मेँ एक दुर्गा ने बदले की भावना से रात को लाईब्रेरी मेँ पढ़ते पढ़ते सो गये महिषा पर छल से वार कर दिया"।मित्र लल्टू ये कथा पढ़े लिखे बुद्धिजीवियोँ को अपने खेमे मेँ खिँचेगी।एक पढ़ने लिखने वाले भोले युवा महिषा का शोषण कोई भी करूणा और दया एवं प्रगतिशिलता से भरा बुद्धिजीवि बर्दाश्त ना करेगा और हमारे महिषा खातिर देश भर मेँ समर्थन जुटने लगेगा।अच्छा लास्ट मेँ एक आरती भी लिखना होगा जिसे एक मीका से,दुसरा दलेर मेँहदी से गवा लेँगे क्योँकि अनूप जलोटा और नरेँद्र चंचल दुर्गा खेमे के गायक हैँ और उनका संगीत भी अब आउटडेटेड हो चुका है।मीका गायेगा"बैल,भैँसन लंगुर की..आरती कीजे महिषासूर की"और दलेर एक झुमाऊ आरती देँगे"सड्डे भैँस चढ़ोगे तो ऐश करोगे"।देखना ये सुन लोग पल्सर बेच भैँस खरीद लेँगे।तो मित्र लल्टू अगर सच मेँ महिषा के साथ प्रतिबद्धता के साथ खड़े हो उनके लिए कुछ करना चाहते हो तो ये सब उतनी ही इमानदारी करके दिखाओ जितनी ईमानदारी से दुर्गा खेमे वाले अपनी माँ दुर्गा के लिए कर दिखाते हैँ।और केवल ये सब बस एक क्षणिक आवेश मेँ आके यूनिक दिखने का तमाशा भर है और बस विरोध के लिए विरोध का हथियार भर है तो मुझे अफसोस है कि मैँ एक अवसरवादी भड़काऊ नकारे आदमी का मित्र था जो ना मेरा हुआ,ना माँ के भभूत का,ना दुर्गा का,ना महिषा का।अब हजारोँ साल से स्थापित मान्यता को एक दिन की बकलोली या एक शहादत दिवस और चंद पर्चोँ पोस्टरोँ से तो ना ढाह पाओगे मित्र।कुछ तगड़ा और लगातार करो। एक ऐसा बस विध्वंसक भर ना बनो जो कल अपने मतलब और अपने विचारधारा के खुराक के लिए रावण और भस्मासूर का भी उपयोग कर ले।कम से कम जिसके साथ रहो.पुरी ईमानदारी के साथ मरते दम रहना..चाहे दुर्गा या चाहे महिषा।भयंकर शुभकामानाएँ तुमको।जय हो।