"भारत माता" फिर चर्चा मेँ है।भारत
मेँ अचानक लिँगसंवेदी व्याकरण योद्धाओँ का एक वर्ग जागृत हो गया है जो जिसको मन
तिसको पकड़ पूछ रहा है"बताओ भारत स्त्रीलिँग है या पुलिँग?भारत
जब भरत के नाम पर नाम पड़ा तो फिर माता कैसे हो गया?"इसी तरह के तमाम पुलिँगात्मक तर्क देकर
भारत माता को हूरकूच के देखा जा रहा है कि ये माता है या पिता या फिर मौसा या
फूफा।ये वर्ग भारत को माता कहने के पक्ष मेँ नहीँ है तथा इससे इनके व्याकरणीय
चेतना को ठेस पहुँची है।कुछ पुलिँगसंवेदक बुद्धिजीवि तो अपने जीभ पर पोटाश और
निँबु घस उसे खरच कर ऊपर का एक लेयर हटा दे रहे हैँ जिससे बचपन मेँ कभी स्कूल
कॉलेज मेँ मुर्ख भीड़ के साथ किसी 15 अगस्त या 26 जनवरी को भारत माता का नारा लगा
दिया था।इनकी भी तब कोई गलती थोड़े थी।दशकोँ दशक से भारत को माता कहने वाले इस देश
मेँ आज तक कोई साहित्य और व्याकरण का कोई गुढ़ जानाकार पैदा ही नही हो पाया था जो
बता सकता कि भारत माता है या पिता।ये तो भला हो इन कुछ बुद्धिजीवियोँ का जो इस
घनघोर व्याकरणीय गलती को सुधारने जन्म लिये हैँ और भारत का लिँग निर्णय कर वापस
समाधी ले लेँगे।क्या बात है साब:-)आज जब सोचना ये चाहिए था कि हम
कैसे"देश" मेँ रहते हैँ,हम सोच ये रहे हैँ कि"हम देश मेँ रहते हैँ
कि देशाईन मेँ"।भारत देश है कि देशाईन?माता है कि पिता?ये है 21वीँ सदी के एक मुल्क का
विमर्श!कितना लिँगनीय,सोचनीय और साथ साथ खाँटी निँदनीय विमर्श।लेकिन
जब विमर्श छेड़ ही दिये हैँ तो सुन भी लिजिए।माँ शब्द का अर्थ जन्म देने से ले के
पालने वाली,दुलारने वाली और अपने पूत के लिए सबकुछ सहने
वाली के प्रतीक के रूप मेँ है।धरती को माँ कहने के पीछे यही भाव है कि हमेँ इसी के
कोख से अन्न,खनिज से लेकर तमाम संसाधन प्राप्त होते हैँ।ये
अपनी छाती पर नदी से लेकर पहाड़,जंगल सब लिये हमारी जरूरतोँ को पूरा करती
है।यही अपने पालने मेँ हमेँ पालती है।आसमान नहीँ आता हमेँ खड़े होने की जमीन
देने।ये धरती का माँ जैसा ही दिल है कि अपनी छाती पे लिये तैरती नदी से इंसानियत
को साफ पानी पिलाती है और बदले मेँ उसी इंसानोँ से मिलता है उसे कचरा और जहर जिसे
बिना कुछ कहे चुपचाप अपने रफ्तार से ढोहती है।कुछ ना कहती।जिन पेड़ोँ से फल देती है
उसी को कटता देखती है।जिन पहाड़ो को प्रहरी बना खड़ा किया उसी को धमाको से चुर होते
देखती है।धरती हमेँ कल्याण देती है,जीवन का सृजन करती है और खुद का विध्वंस सहती
है।सारे पाप सहती ये धरती अगर अभी तक पूरी फट ना गई है और हम मेँ से आखिरी व्यक्ति
तक उसमेँ समा ना गया है तो जान लिजिए कि ये "माँ" का ही दिल है जो सब
कायम है,भुकंप,बाढ़,सुखा जैसी डाँटोँ के बावजूद।ऐसी धरती को पापा
के जगह माँ कहना ज्यादा उपयुक्त स्वभाविक है और अगर एक देश और देशभक्ति के लिहाज
से भी देखेँ तो माँ कहने पर भावुकता का जो उफान उठता है वो किसी भी बाधा से लड़ने
और देश पर अपने को न्योछावर करने के लिए ज्यादा प्रेरित करता है।और ऐसा केवल भारत
मेँ नहीँ।जर्मनी मेँ भी जर्मनवाद की प्रेरणा "मदर जर्मेनिया" से ज्यादा
प्रबल हुई जबकि वहाँ बिस्मार्क जैसे डैडी भी थे जिनकी मुँछ ही हाथी के पूँछ से
ज्यादा भारी थी,वो दिखता भी स्पार्टा योद्धा था।फ्रांस द्वारा
दिया उपहार, अमेरिका मेँ स्टैच्यु ऑफ लिबर्टी भी स्वतंत्रता
की देवी के ही रूप मेँ खड़ी है जबकि वहाँ पापा या देवोँ की कमी नहीँ थी।कुल मिला
दुनिया मेँ भारत से इतर भी कई देश सदियोँ से ऐसा करते आये हैँ जहाँ देश या राष्ट्र
को माँ स्वरूप मान देश और उसके नागरिकोँ के बीच एक मजबुत भावनात्मक रिश्ता कायम हो
सके।अब आओ साब नाम पर।जब माता है तो नाम भरत नाम के लड़के पर कैसे?तो
हे अक्ल से हिमालय "लिँगराज डैडीश्वरोँ", आप ये बताईये कि एक महिला आदरणीय पूर्व
लोकसभा अध्यक्षा"मीरा कुमार" हो सकती हैँ,कुमारी नहीँ।पुरूष अभिनेता राज किरण,"किरण"
हो सकते हैँ किरणा नही।पुरूष सुनील दत्त भवानी सिँह डाकू हो सकते
हैँ।"तुलसी" तो सास भी कभी बहु थी की महिला और तुलसीदास नाम के पुरूष
लेखक दोनोँ हो सकते हैँ तो ये बताईये एक माता का नाम भरत के नाम पर भारत माता या
माँ भारती क्योँ नहीँ हो सकता।भाई साब कम से कम नाम रखने मेँ तो लिँगनिरपेक्षता
रहने दीजिए बाकि तो लिँग के आधार पर भेदभाव जारी ही है।साब ये सब चोँचलेबाजी को
छोड़ कहीँ उपयोगी जगह पर दिमाग लगाईये।भारत का लिँग तय करने की जगह ये तय करिये कि
कहाँ कहाँ लिँग के आधार पर दुनिया कट रही है,आधी दुनिया पीछे छुट रही है।भारत के लिँगनिर्णय
को छोड़ उस लिँग अनुपात पर सोचिए जहाँ 1000 पुरूष पर 940 ही महिलाएँ हैँ।60
महापुरूषोँ की जरूरत पर सोचिए महानुभवोँ।सोचिए उस हालात पर जहाँ हरियाणा जैसे
राज्योँ मेँ पेट मेँ ही भ्रुणबच्चियाँ मार दी जाती हैँ और आदमी अपने बच्चोँ की
मम्मी पैसे दे खरीद के ला रहा है।एक तरफ तो बुद्धिजीवियोँ को सदा शिकायत रहती है
कि ये देश अपने ऐतिहासिक परंपरा से ही पितृसत्तात्मक रहा है,ऐसे
मेँ जब देश का मानवीकरण माता के नाम पर कर मातृशक्ति का गुणगान करने की परंपरा आई
है तो यही बुद्धिजीवि लिँग लिँग लिँगा का भजन गा सबसे बड़े लिँगयोद्धा के रूप मेँ
भारत को उसका लिँगाधिकार दिलाने की मुहिम छेड़े हैँ।हम अब इनसे पूछ भारत को माता या
पिता का तमगा तय करेँगे।बॉबी डार्लिँग को भी इनसे पूछ कर अपना लिँग परिवर्तन कराना
चाहिए था।बंगाल की प्रतिभाशाली एथलिट पिँकी को भी ऐसे ही लिँगाधिकार कार्यकर्ता
टाईप बुद्धिजीवियोँ ने पुरूष घोषित करवा दिया था और एक प्रतिभा को निगल गये।भारत
माता के स्त्रीलिँग और पुलिँग जाँचने वालोँ..हुजुर आप पर भी हमसब की नजर है।आपसब
का भी जाँचा जायेगा।अब आँख मुँद आपका भी थोड़े विश्वास कर लेँगे।नमन आप लिँगाधिकार
कार्यकर्ताओँ को।अच्छा जरा सुडान और युगाँडा का भी पता कर बताना जी.ये पापा हैँ कि
मम्मी:-)या मौसी कि फूआ।जय हो।
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