
Come and see a village from my eyes and you will feel no difference between your village and my village or any other Indian village.
Saturday, November 22, 2014
पाउडर" लगाते हैँ आप?

Monday, November 17, 2014
यही सच है .............

Saturday, November 15, 2014
रेडियो .....रेडियो....रेडियो

आबुआ दिशुम-आबुआ राज

Friday, November 14, 2014
बचपन बिना "बाल दिवस"
अब बच्चे कहाँ पैदा होते हैँ साहब? बदले हुए तथाकथित चमचमाते भारत के बदले हुए परिवेश मेँ गौर से देखिये तो आपको बच्चे कम, बाप ज्यादा पैदा होते मिलेगेँ। बच्चोँ का एक वर्ग संपन्न परिवार के बच्चोँ का है जो अपनी प्रतिभा से चमत्कृत करता है,सारे गा मा प मेँ गाता है,दुलार की उम्र मेँ ईश्क समझने लगा है, 7 वर्ष की कच्ची साफ्ट उम्र मेँ हाथ मेँ हार्डवेयर माउस लिए कंम्पयुटर चलाता है, 8 साल की फूल सी नाजुक उम्र मेँ ओक्का बोक्का चंदन काठी खेलने के बजाय नेट पर खुनी विडियो गेम खेलता है, काठ के घोड़े चढ़ने की जिद करने की उम्र मेँ स्कुटी दौड़ाता है, हवा मिठाई खाने की उम्र मेँ रजनीगंधा गुटखा खाता है, फ्रुटी पीने की उम्र मेँ बीयर गटक जाता है, अब आप ही बताईए ये आपके हमारे बाप नहीँ तो क्या हैँ। इधर बच्चोँ का एक वर्ग ऐसे बच्चोँ का भी है साहब जो सुबह पीठ पर हुरकुच्चा मार के जगाया जाता है,उँघते हुए वो उठता है और चाय दुकान पर या नाश्ते की दुकान पर कमाने निकल जाता है,बीड़ी पीता है, पिज्जा इसने देखा नहीँ सो खैनी खाता है, खिलौने तोड़ने की उम्र मेँ पत्थर तोड़ता है,कंधे पर घुमने की उम्र मेँ ईँट भट्टे पर ईँट ढोता है, खेल खेल मेँ बालु का घर बनाने की उम्र मेँ वो बीड़ी बनाता है, कुल मिला कर वो कचरस उम्र से ही खुन जला के कमाता है और बिना एहसास हुए घर चलाता है क्योँकि ये तय है कि ऐसे बच्चोँ के घर मेँ अगर रोटी माँ बर्तन पोछा कर कमा के लाती है तो दाल इस बच्चे की कमाई से आती होगी, अब आप बताईए के इस छोटे उम्र मेँ अपने इन जिम्मेदारियोँ के लिहाज से ये बच्चे भी बाप नहीँ तो और क्या हैँ? हुजुर ये घर चलाने वाले लोग हैँ,बच्चा मत कहिये। यानि संपन्नता के बीच हो या विपन्नता के बीच पर आज सही मायने मेँ बचपन कहीँ नहीँ बचा। कहीँ पर अधिक सुख सुविधा ने बचपन को लील लिया तो कहीँ अभाव ने बचपन लुट लिया।असल मेँ बचपन का फूल तो संतुलन के बगीचे मेँ ही खिल सकता था, पर किसी ने इस पर सोचा नहीँ, तो किसी के पास सोचने खातिर कुछ था ही नहीँ। छोटी उम्र रही, बड़े बड़े काम रहे पर अफसोस के इस बड़ी होती विकराल दुनिया ने हमारा"बचपन" खा लिया। जाईए मेरी हाय लगे इस खोखली बड़ी दुनिया को।अच्छा है, आइए मजाक उड़ाईए,बाल दिवस मनाईए.....जय हो।
Tuesday, November 11, 2014
अँचार का आचार

Monday, November 10, 2014
लिट्टीलाइजेसन

"बस स्टैँड" बस "स्टैंड" नहीं
कभी किसी "बस स्टैँड" पर कुछ
घंटे तो बिताया ही होगा आपने! चाहे छोटा शहर हो या बड़ा,बस स्टैँड का
माहौल कमोबेश पुरे देश मेँ एक जैसा ही होता है।खुलती जाती आती बसेँ,रह रह के हार्न
दबाता ड्राईवर झोला ले के दौड़ते पसेँजर,उसके पीछे अपनी मुँगफली का पैसा लेने
दौड़ता झालमुड़ी वाला:-)।कुछ तो खास किस्म के पसेँजर होते हैँ,वो पुरे समय बस
के पास खड़े वक्त गुजारेँगेँ,पर जैसे बस स्टार्ट हुआ और हार्न दबा कि वो बेल्ट ढीला किये
दीवाल की तरफ दौड़ेँगेँ जहाँ मोटे अक्षरोँ मेँ लिखा होता है" कृपया यहाँ ...
ना करेँ"!असल मेँ ये पढ़ते आदमी निश्चिँत हो जाता है कि ओ आदिकाल से यहाँ पर
"किया जा"रहा है अतः इमरजेँसी मेँ थोड़ा कर ही दिया तो अपराध नही है।ऐसा
आदमी जब तक बेल्ट पेँट पकड़े दौड़ते हाँफते न चिल्लाये "हो हो जरा रोक के
ड्राईवर साब रोक के" तब तक वो सीट पर फीट हो बैठ ही नही सकता। अच्छा स्टैँड
पर बिकने वाली कुछ खास चीजेँ होती हैँ जो हर बस स्टैँड पर हाथ और कंधे पर ही मेँ
बाजार लिये लटकाये बेचते दुकानदार आपको दिख जायेगेँ,जैसे-ताला चाबी,20 रूपये तक के
बच्चे के खिलौने,कलम,कंघी,बेल्ट,जैसे एक्सेसरीज।इन बेचने वालोँ का धैर्य और आत्मविश्वास IIM अहमदाबाद के प्रबंधन
के स्नातक से ज्यादा होता है।आत्मविश्वास इतना गजब कि मैँने एक बेल्ट बेचने वाले
को देखा वो एक धोती पहने बुजुर्ग को बेल्ट दिखा रहा है:-)।वो बुजुर्ग बेल्ट के
बकलस को ऐसे खीँच के उसकी मजबुती देख रहे थे जैसे कोई ट्रैक्टर रस्सा लगा के ट्रक
खीँच रहा हो। बुजुर्ग ने कहा" केतना दिन चलेगा,केतना पैसा इसका?" बेचने
वाले ने झट बेल्ट बुढ़े के हाथ से लिया और जोर से तीन बार जमीन पर पटका "लो
तोड़ के दिखा दो बाबा,ले जाओ एक नंबर चीज है,मिलता नही है,सुपर पीस है,एक दाम है
भईया.कचकच नय,बोहनी का टाईम है,लास्ट 60 रूपिया लेँगेँ"! ना हाँ करके 50 मेँ मामला पट
गया।मुझसे रहा ना गया,मैँने पूछा बाबा आप बेल्ट का क्या किजियेगा? बुजुर्ग ने
हँसते सकुचाते कहा" ऊ पोतवा के लिए ले लिये हैँ,मैटरिक किया
है.कालेज जायेगा अब"।मेरे रोँगटे खड़े हो गये।हाँ ये लाखोँ की गाड़ी मेँ हजारोँ
के कपड़े पहन तैयार हो प्लान कर करोड़ो के मॉल मेँ खरीददारी करने वाला खरीददार नही
है,ये तो वो है जो
बिना किसी प्लान बैठे बैठे केवल 50 रूपये मेँ जिँदगी का सबसे सार्थक लगने वाला सामान खरीद लेता
है।हाँ इसका पोता कॉलेज जो जायेगा बेल्ट पहन के साहब।सच बुढ़ापा अपने बस के भागमभाग
ढेलमपेल वाली भीड़ के सफर मेँ भी भविष्य को लेकर कितना सजग है,कितना संवेदनशील
है।हाँ भला आज के बेफिक्र जवानी मेँ ये सजगता और संवेदना कहाँ के अब कोई हामिद
दादी के लिए चिमटा खरीद लिये जाय। अच्छा चलिए स्टैँड की दुसरी ओर:-)।पानी वाली चाय
और बिना दाना का मुँगफली,झौँसाया भुट्टा,पहलवान दाँततोड़ु चना ये सब बस स्टैँड
का सेट मेन्यु है। अच्छा स्टैँड पर आपको किताब विक्रेता मिलना ही मिलना है।ये
नर्सरी की अंग्रेजी किताब से शुरू करेगा।फिर जोर जोर से हनुमान चालीसा,शिव चालीसा
बोलेगा और फिर चुटकुले की किताब निकालेगा"सर जीजा साली के हँसी के चुटकुले
निकालेँ"! फिर गाने की किताब।मालुम आज यो यो हनी के दौर मेँ मुकेश के दर्द
भरे नगमे और रफी के रोमाँटिक गीत अगर जिँदा हैँ तो इसी किताब वाले के कंधे पर।और
अँत मेँ धीरे आवाज मेँ कहेगा"जी कुछ और लिजिएगा क्या:-)"।आदमी झेँप जाता
है और अपनी उत्कंठा को मिनिमाईज करते हुए आदमी अंत मेँ "सरस सलिल" ले के
खुद को समझा बुझा लेता है।और हाँ अक्सर बस मेँ एक खास आईटम बिकता है"हाथ से
जूस निकालने की घुरनी वाली मशीन"।ओह ऐसा मौसंबी का रस निकाल के दिखाता है कि
क्या कहेँ,पर मैँने दस बार लिया होगा आज तक एक ग्लास ढंग से नहीँ निकला
संतरा या मौसंबी का रस।:-) बस खुल गई।।बस स्टैँड सदा खुला रहता है।यही सब तो उन
कुछ जगहोँ मेँ हैँ जहाँ जीवन कभी ठहरता नहीँ है।आना जाना लगा है साहब।हम सब एक बस
के यात्री ही तो हैँ साहब:-)।जय हो।
Saturday, November 8, 2014
"रेलगाड़ी"..एक दिन का घर

Monday, October 27, 2014
एक रात रूहानी
गाँव मेँ हुँ।रात के 11.30 बज रहे हैँ।खटिया पर कंबल ताने सोया हुआ हुँ।एक लालटेन अँधेरे मेँ उम्मीद की तरह खटिया के ठीक पास मेँ धीमे कर जला रखा हुआ है।आसपास बिलकुल सन्नाटा है,झीँगुरोँ की आपस मेँ खुसुर फुसुर के अलावा एकदम सन्नाटा है। घर के ठीक पीछे सियार की हुँआ हुँआ की धीमी आवाज आ रही है।कही लगभग किलोमीटर की दूरी से हरि कीर्तन की मध्यम आवाज आ रही है।अभी अभी तुरंत एक आवाज आयी है सामने के नीम के पेड़ से,पता नही कौन सा पक्षी है।ऊपर खपरैल पर वर्षा के पानी की कुछ बुँद गिरी हैँ,मानो घुँघरू बजे होँ।बीच बीच मेँ गली के वफादारोँ के भुँकने की आवाजेँ आ रही हैं,शायद सुरक्षा पर विमर्श चल रहा होगा।साँय साँय पछिया बह रही है। घर के दरवाजे पर रजनीगँधा और रातरानी गम गम कर रही है। सच कहता हुँ, अगर आप शहर मेँ सोये हैँ तो मेरा दावा है, ऐसी रूमानी रात ला के दिखा दिजिए। माफ करियेगा आज मैँ तो "बादशाह हुँ और मैँ आपको अगर एक घुटन वाली कर्कश रात मेँ फँसा "कंगाल" कह दुँ,तो प्लीज बुरा मत मानियेगा.... 5 दिनोँ बाद मैँ भी फिर से कंगाल हो जाऊँगा।मेरी बादशाहत भी लुट जायेगी,ये रात चली जायेगी।क्योँकि वापसी का टिकट है, फिर शहर को जाना है। जय हो
Saturday, October 25, 2014
छठ- घर नहीं गाँव का परब

Thursday, October 9, 2014
चुहानी टूट गईल नानी
आज जब खाना बना रहा था के अचानक कड़ाही से उठे मसालेदार खुशबु वाले भाँप से मन के भीँगते ही जाने कितने यादोँ के कोँपले फूँट पड़े। तब के खान पान पकान और आज की शैली मेँ बड़ा फर्क आ गया। तभी याद है के घर मेँ अलग से एक रसोईघर होता था जिसे हमारे यहाँ"चुहानी"कहते थे। यह समान्यतः आवासीय कमरे से थोड़ा हट के होता था,कारण ये था के तब घर मेँ दो ही स्थान पवित्र माना जाता था एक तो पूजा घर दुसरा रसोई घर।क्या मजाल के कोई जूता चप्पल पहने 'चुहानी' मेँ घुस जाये।रसोई मेँ 'देवी अन्नपुर्णा' का वास माना जाता था और जाने अनजाने इस विश्वास और पवित्रता के कारण बड़ी सफन सफाई वाला भोजन बनता था वहाँ। माटी का चुल्हा होता था और माटी के फर्श से लेकर चुल्हे तक की रोज गोबर से लिपाई होती थी और उसके बाद बुढ़ी माई टीका लगाती तब चुल्हे पर कड़ाही चढ़ती थी।अच्छा तभी जब सब्जी के लिए"लोढ़ी पाटी" पर मसाला पीसाता तो गरड़ गरड़ की आवाज आँगन मेँ ऐसी गुँजती मानो ठीक बरामदे के किनारे से रेल जा रही हो।सब्जी की कड़ाही को चुल्हे पर चढ़ा उपर से थाली ढक दिया जाता और थोड़ी देर बाद उससे भाँप की फुड़ फुड़ की आवाज आती और उपर का थाली नाच नाच बताता हुआ प्रतित होता था के "लो अम्मा सब्जी बन गई,उतार लो "।बिना MDH और EVEREST के टोला गमकता था, ऐसा जादू था उन कच्चे मसालोँ और माँ के पक्के हाथोँ मेँ।खाना खाने का भी एक शास्त्रीय नियम सा था। कच्चे फर्श पर पोछा लगा के वहीँ पीढ़ा या बोरा बिछा के आसन लगता।याद आता है के नाना खाना खाते और बुढ़िया नानी पंखा झलती। आज के नारीवादी इसे शोषण और गुलामी कह सकते हैँ पर ये उनके लिए स्नेह और समर्पण था जो आखिरी दम तक रहा।वे बिना शिकायत खुशी खुशी अपनी जिँदगी जी के, दुनिया को बहस करता छोड़ गये।आज सब कुछ बदल गया साहब।पता नहीँ किसने अफवाह फैला दी।औरतोँ के लिए खाना बनाने को चुल्हा झोँकने का नाम दे दिया गया और रसोईघर को कालापानी घोषित कर दिया गया।रसोई से मुक्ति को भी नारी मुक्ति का नारा मान लिया गया। नारा बुलंद हुआ।अपने अर्थोँ मेँ नारी जग गईँ शायद और चुल्हे पर पानी डाल दिया गया,कड़ाही उलट नारी निकल पड़ी और चुहानी ध्वस्त कर दिये गये।अब किचन आ गया। नारी ने कहा हम अब सशक्त हुए सो खाना नहीँ बनायेँगेँ,पुरूष ने कहा हम तो सदियोँ से सशक्त हैँ सो हम भी नहीँ बनायेँगेँ।नतीजा खाना नौकर बनाने लगा। माँ बहन या पत्नी पंसद के हिसाब से बनाती थी पर नौकर आपकी औकात के हिसाब से बनाता है।तब थाल मेँ प्यार परोसा जाता था अब बस गीला-सुखा खाना परोसा जाता है।अब चम्मच से खाते हैँ तब मन से खाते थे।अब आदमी के पास न बनाने का वक्त है न खाने का। तभी तो अब 2 मिनटस् मेड मिल आ गया है।2 मिनट मेँ बनता है और 7 दिन मेँ पचता है।पता नहीँ आदमी शांति से बैठ खा भी नहीँ रहा बस भुखा प्यासा जमा करने मेँ लगा है।उसे कौन बताये के जमा चीज एक दिन सड़ ही जाती है चाहे कितना जमा कर लो। आदमी काश एक दिन शांति से बैठ पेट भर खाता तो उसकी भुख मिटती और तब वो संतोष पाता फिर शायद इस कदर ना जमा करने के पीछे भागता फिरता।एक दिन बैठ प्रेम से पेट भर खाये तब तो पेट और भुख का अंदाजा लगे पर उसके पास रिश्वत से लेकर देश तक खाने का वक्त है पर भोजन के लिए समय नहीँ है। शायद यही कारण है कि भुखा आदमी आज भी दौड़ रहा है जमा करने को..खुब जमा करने को..अपनी भुख से कई गुणा ज्यादा।:-)क्योकि उसे अपने पेट का अंदाजा ही तो नही है साहब।सो जाईए एक दिन शांति से बैठ के जरूर खाइए।यकिन मानिए मजा आ जायेगा और बहुत कुछ बदला बदला लगेगा हुजुर।जय हो..
Saturday, September 20, 2014
बयान-ए-आशिक़
बिलावल के बयान पर हाय तौबा वाली बात ही नहीँ है चचा। असल मेँ बयान बिलावल ने नहीँ, "उसके अंदर के आशिक " ने दिया है।ये जरदारी के बेटे का नहीँ,हिना के दिवाने का बयान है:-)। चचा "कश्मीर" धरती का स्वर्ग यानि "जन्नत" कहलाता है। दुनिया का हर आशिक अपनी मेहबुबा के कदमोँ मेँ जन्नत रख देने का भोकाल टाईप डॉयलॉग देता आया है, आज बिलावल ने भी दे दिया तो कऊन जन्नत जाने लगा हमारे हाथ से:-)।देखिये सामान्यतः "आशिक" अपने आप मेँ एक मॉडिफायॅड सभ्रांत सुशील लुच्चा होता है।कहता ही है "ई कर देँगेँ,ऊ ला देँगेँ "। देखिये न आप ही नहीँ बोलेँ होँगेँ क्या "माँग मेँ तारे भर दुँगा, गर्दन मेँ सितारे लटका दुँगा":-Pपर कबो किये थे का ऐसा?नहीँ न। दुनिया के लाखोँ जोड़े आज भी रोज हमारे ताजमहल के आगे अपनी धनिया,रामप्यारी,कबुतरी,रूक्साना, जरीना,नगमा,बॉबी,मैरी,चेरी आदि अनादि का हाथ पकड़ के कहते आये हैँ " मैँ भी तुम्हारी याद मेँ ऐसा ही ताजमहल बनवाऊँगा "। पता करवा लिजिये कोई एक भी ट्रैक्टर ईँटा बालु गिरवाया क्या इस नाम पर:-)। सो जाने दीजिये दिवाने का बयान है, कश्मीर का वादा किया है,कश्मीरी पुलाव खिला देगा और समझा लेगा मेहबुबा को। एक बात जरूर जान लिजिये चचा,भारत हो या पाक या दुनिया मेँ कहीँ,विरासत की राजनीति मेँ "आवारा पागल दिवाना मस्ताना " ही पैदा होते हैँ, नेता नहीँ।। जय हो
Monday, June 9, 2014
वुडलैंड

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