Saturday, November 22, 2014

पाउडर" लगाते हैँ आप?

"पाउडर" लगाते हैँ आप? या तो लगाते होँगेँ या कभी जरूर लगाया होगा।पाउडर का महत्व और प्रयोग आदिकाल से होता आ रहा है।देवोँ के देव महादेव को भी भस्म रूपी पाउडर लगाना प्रिय रहा है। जी हाँ सौँदर्य प्रसाधनोँ मेँ लिपस्टिक,बिँदिया, पाउडर,क्रीम,मेँहदी और नेलपॉलिस जैसे प्रसाधनोँ के बीच पाउडर और क्रीम ही दो ऐसे लिँगनिरपेक्ष प्रसाधन हैँ जिनका प्रयोग पुरूष भी खुब करते हैँ।यहाँ बात पाउडर की कर रहा हुँ।याद आता है बचपन जब शाम के चार बजते ही हम जैसे खेलने को बाहर जाने को होते माँ दौड़ के पाउडर का डिब्बा ले के आती और बेटा घर के बाहर धुल मेँ लोटने खेलने के बाद भी सुँदर दिखे इसके लिए पाउडर पोत के बाहर भेजती थी:-)।पाउडर लगवाना भी एक कड़ा पल होता था बच्चोँ के लिए।हम बिना पाउडर लगवाये जल्दी खेलने जाने को भागते कि मौसी धर के दोनोँ हाथ पकड़ती,नानी टाँग पकड़े है,माँ एक हाथ से मेरा लंबा झोँटा पकड़े होती और दुसरे हाथ से धर के गाल पर रगड़ रगड़ के पाउडर "लगाती नहीँ" बल्कि "घसती" थी।हम बस साँस रोके आँखेँ बँद कर चेहरा ताने उस पल को झेल लेते किसी तरह। पाउडर को इस कदर रगड़ के माँ हमेँ ठीक उसी भाव से चमकाने का प्रयास करती जैसे कोई आदमी लोन से ली हुई हीरो होँडा बाइक को धो पोँछ चमतकाता है।पाउडर इतना कि आज भी अपनी नाक मेँ गँथी वो खुशबु गई नहीँ,आज भी महसुस करता हुँ,याद करते महक जाता हुँ।पाउडर मेँ भी शायद ही कोई गाँव कस्बा या घर होगा जो "PONDS पाउडर" से ना गमका होगा। अच्छा बच्चोँ को गरगोँत के पाउडर लगाने का चलन केवल मेरे नही, हर खाते पीते घर मेँ था।आहा गाँव की मिट्टी मेँ जब पौँड्स लगाये हम लोटते तो दोनोँ की खुशबु मिल क्या नशा तैयार कर देती थी। एक पाउडर था "नाईसिल" पाउडर।बदन मेँ घमोर घमछी होने पर ऐसा पोता जाता था जैसे दिवाली के अवसर पर दिवाल मेँ चूना पोता जाता है।घमोरी हुए एक 6 बरस के बच्चे को नंग धड़ंग पाउडर लगा के आँगन के खटिया पर ऐसे लिटा दिया जाता था जैसे भतुआ का बड़ी सुखने छोड़ा हो खटिया पर।बच्चा इस कदर गर्दन से पाँव तक पाउडरमय होता था जैसे शरीर पर भभुत लगाये भोलेनाथ की बारात का कोई मसानी भूत या पिशाच का भतीजा हो जो बारात मेँ नाचते नाचते थक के पीछे छुट गया है और अभी जनबासा मेँ खटिया पर आराम कर रहा है:-)। अच्छा बच्चा गोरा हो या काला हर माँ को लगता था कि पाउडर उसके लाल को सफेद कर देगा।माँओँ को लगता था कि जो बच्चा काला है वो सफेद दिखेगा और जो गोरा है वो बहुत सफेद दिखेगा।ऐसे समय मेँ जब हर तरफ काला है,दाल काला,भात काला,अफसर काला,नेता काला,खेल काला,अखबार काला,धन काला,रिश्ता काला,संत काला ऐसे मेँ सफेदी को लेके कोई इतना सजग हो सकता है तो वो बस "माँ" ही है।अच्छा ये तो बात बच्चोँ की थी,बड़े व्यस्क मेँ भी पाउडर का चलन खुब रहा है।जिस गली मेँ "पौँड्स" गमका समझिए आज कोई बारात जाने वाला है।जी बड़ोँ मेँ पाउडर का चलन सबसे ज्यादा बाराती जाते वक्त ही था।मुझे जब भी चौधरी जी सिल्क के कुर्ता पर गर्दन पर पाव भर पाउडर लपेटे मिलते मैँ समझ जाता आज कहीँ कुटमैती या बाराती है। उनके गर्दन के पसीने से वो 250 ग्राम पाउडर इस कदर चिपका दिखता मानो "मिथिलांचल चिकन पिज्जा" पर एक्सट्रा cheese topping की गई हो! चौधरी जी कहते "अरे का मलेछ जैसन बारात जा रहे हैँ,तनी तेल कुड़ पाउडर लगा लिजिए,गर्मीया मेँ ठीक रहता है कि"।बारात वाले बस मेँ तो लड़का का मामा या फुफा बकायदा पाउडर का डिब्बा ले के चढ़ जाते थे और पूरे बस मेँ पाउडर छिड़कते थे।वो दुल्हे का रेँमड के रूमाल पर पाउडर छिड़क हमेशा मुँह और नाक ढके रखना:-)।ये बारात की खुशबु अब कहाँ? एक सेठ जी थे,पाउडर लगाने के बाद लगते थे जैसे पुरानी राजदूत मोटरसाईकिल को विश्वकर्मा पूजा के दिन धो पोँछ के चमकाया हो। जी साहब आज जब इंसान बिना पाउडर लगाये भी चेहरे को ढक के चलता है,कौन सियार है कौन भेड़िया पता ही नही चलता तब पाउडर का आवरण ही बढ़िया था जिससे आदमी बस चमड़ी का रंग छुपाता था,चरित्र नहीँ और गमगम भी करता था।वैसे पाउडर आज भी चलन मेँ है, गाँव के चौधरी जी से लेकर लोकप्रिय रविश कुमार तक को पाउडर आज भी चमकाता है।मैँ मूलतः बिहारी हुँ और बिहारी चाहे बोलने समझने मेँ कितना भी स्मार्ट हो पर स्मार्ट दिखने का आत्मविश्वास उसे आज भी पाउडर से ही मिलता है। ये बात मैनेँ ndtv के रविश कुमार को देख जाना:-)।बिना पाउडर प्राईम टाईम से अलग रविश जी को देखिये, वो चमक नही रहती:-)।यहाँ दिल्ली मेँ सिविल की तैयारी वाले लड़के का पाउडर छिड़क निकलना खुब गुदगुदाता है। देखिये ना माँ ने मुझे गोरा दिखने और सुंदर दिखने के लिए रोज जबरन पाउडर लगाया।आज वक्त ने चेहरा रूखा कर दिया,संघर्ष और दुनियादारी के ताप ने चेहरा जला दिया। माँ का पाउडर धुल गया शायद।कुछ भी लगाता हुँ दाग छुपते नहीँ।आज भी जब अपनी कड़ी अँगुलियोँ को अपने रूखे गाल पर फेरता हुँ तो बरबस माँ याद आ जाती है" माँ देखो न,कितना जल गया हुँ,फिर से पाउडर लगा दो न,मुझे चमका दो न,अब नही भागुँगा माँ"।जय हो

Monday, November 17, 2014

यही सच है .............

हाँ "देश चलाना" एक बड़ा काम है पर सच कहुँ साहब, "घर चलाना " देश चलाने से बड़ा काम होता है।ये "देश चलाने वाले" एक दिन के लिए एक आम आदमी का कभी घर चला के देँखे।साहब देश चलाने के लिए एक शातिर मंत्रीमँडल,चापलुस अफसरशाही,कामचलाऊ भ्रष्ट कर्मचारियोँ का समूह है पर घर तो आदमी को अपना खुन जला के,पसीना बहा के अकेले चलाना होता है। उनकी चिँता 5 साल की है,हमारी चिँता 5 पीढ़ियोँ की।एक दिन सँसद ना चले उन्हेँ तो आराम मिलता है,वो तब सुकून से सोते हैँ पर एक दिन घर ना चले तो हम खटिया पर पड़े बेचैन सारी रात जगते हैँ।उन्हेँ एक बेबस देश चलाना है, पर हमेँ तो उम्मीदोँ से भरा,खुशियोँ की आशा से बँधा संघर्ष करता एक घर चलाना है।वो मुश्किल मेँ होँगे तो चलो सरकार गिर जायेगी,पर जब एक घर चलाने वाला मुश्किल मेँ होता है तो छत से सीमेँट गिर जाती है,रसोईघर की दीवार गिर जाती है,सर के बाल गिर जाते हैँ। वो सरकार चलाने मेँ हार गये तो विपक्ष मेँ बैठ जायेँगे पर जब कोई घर चलाने मेँ हार जाये तो परिवार सहित फंदे तक पर झुल जाता है। सोचिए एक घर चलाने वाला आदमी जब दिन भर की मरनी खटनी के बाद शाम को बैग लटकाये और उससे भी ज्यादा अपना थोथना (चेहरा) लटकाये अपने घर पहुँचता है,दरवाजा खुलते ही उस पर एक साथ चारोँ तरफ से उम्मीद भरे माँग की बारिश किसी बम की तरह होती है । "पापा मेरा चिप्स?" बँटी घुसते शर्ट का कोना खीँच के बोलता है। "पापा मेरा स्कुल बैग फट गया है" बेटी बोली"।अचानक किचन से पत्नी की आवाज "जी बैँक का लोन वाला नोटिस आया है,ऊहाँ ताखा पर रखे हैँ,देख लिजिएगा थोड़ा,आज मनैजर कह के गया कि जल्दी चुकाने बोलिये नय तो केस करना होगा"घर घुसते पानी पीने से पहले पसीना निकला।तब तक बाबुजी बोले"अरे पीछे वाले परछत्ती वाला देवाल गिर गया है,कबो दु चार पैसा बचा के ईँटा गँथवा दो,अपना भर तो हम सब करबे किये,एक ठो गिरा दिवाल नहीँ बन पा रहा,रोज पिछवाड़ी से कुकुर घुस के आँगन आ जाता है,सोचो तनि करो कुछ"। इतने मेँ बुढ़ी अम्मा पर नजर, दम्मा और गाँठिया की मरीज है,मुँह से कुछ नहीँ बोली बस एक कराह और उसी से सब समझना है"हे भोलेनाथ बस अब उठा ल"। जी हाँ साहब ये है अभी अभी घर घुस कोने मेँ अपना बैग रखे एक घर चलाने वाले आदमी की दुनिया:-|अभी कपड़ा तक नही बदला है बेचारा।जान लिजिए हमारा काम आपसे बहुत बड़ा है वर्ना बतकही और लंबी लंबी छोड़ना तो हम आपसे कहीँ ज्यादा कर सकते थे।हमारे जीभ की लंबाई आपसे मीटर भर ज्यादा ही निकलेगी पर का किजिएगा आपको देश चलाना है इसलिए खुब बोलिये,बकैती करिये,यश बटोरिये।हमारा काम आपसे बड़ा है,हमारा काम बोलने से नहीँ न चलने वाला,बकैती और डकैती हम करते नहीँ,हमेँ तो कमाना है न! हम घर चलाने वाले लोग हैँ साहब।।जय हो

Saturday, November 15, 2014

रेडियो .....रेडियो....रेडियो

"रेडियो" है आपके पास?जी ये मोबाईल वाला "फैन्सी क्रेजी ढीप ढाप टीप टाप चैँ पौँ कि कुँ एफ एम रेडियो" की बात नहीँ कह रहा हुँ। आज अचानक एक सब्जी वाले ठेले पर रेडियो बजता सुना तो खयाल आया कि हाय अब कहाँ रहा "रेडियो" वाला जमाना।रेडियो युँ तो एक जमाने मेँ देश दुनिया से जोड़ने का सबसे सहज और सस्ता साधन रहा जो शहर और गाँव दोनोँ मेँ लोकप्रिय था।पर जो यश और ईज्जत "रेडियो" ने हिन्दुस्तानी गाँवोँ मेँ पायी वो जलवा शहर मेँ कहाँ था रेडियो का। असल मेँ गाँव के शांत वातावरण मेँ 5 बजे भोरे या 8 बजे राते जब रेडियो बजता था तो मानो साक्षात ब्रह्मा की आकाशवाणी हो रही।शहर की चिल्ला चिल्ली मेँ भला रेडियो की आवाज खुद को तो बड़ी मुश्किल से सुनाई पड़ती,भला कोई और क्या सुने।गाँव मेँ देखते, भोरे भोर 5 बजे कि झा जी झट पट उठे,रेडियो उठाया,टार्च से निप्पो बैटरी निकाली,रेडियो मेँ डाला,मीडियम लगाया और लगा दिया "आकाशवाणी भागलपूर"!पास के कुँआ के पास बने तुलसी जी के चबुतरा पर रखा रेडियो,उसमेँ आ रहा है अनुप जलोटा का भजन"प्रभु जी तुम चंदन हम पानी"।इधर झा जी लोटा दतुवन ले के खेत निकले उधरे दूर तक चिड़िया की चह चह और भजन की आवाज मतलब माहौल ऐसा जैसे सूरज के उगने के पहले गाँव मेँ स्वागत गान गाया जा रहा हो। तब तक चबुतरा पर जो आ रहा है ऐँठ के मेगा हट्रज बदल दे रहा है:-)।रेडियो का मतलब एक सामाजिक यंत्र से था तभी तो बेफिक्र हो के रेडियो को सवेँऐँठन हेतु चबुतरा पर छोड़ झा जी खेत निकल लेते थे। इतने मेँ सात बजा कि भुनेशर चौधरी मास्टर साब के घर बलदेव रजक,लोकन महतो,हरिहर पांडे सारे मास्टर जमा हुए।छोटका खटिया पर खोँस के रेडियो रखल है।"बीबीसी लगाईए चौधरी जी, समचरवा आ रहा होगा" मंडल जी बोले।रेडियो पर बीबीसी का माहौल वैसे था जैसे रामायण मेँ राम का।जैसे समाचार वाचक ने कहा"अब आप नीरज कुमार अकेला से समाचार सुनेँ" कि सारे चेहरे सावधान और कान की दिशा रेडिये के स्पीकर की तरफ।क्या मजाल कि उस बीच मेँ कोई टोक दे।गाँव मेँ सबके उसमेँ भी मास्टर साब जैसोँ के लिए बीबीसी की खबर ही जीवन का ज्ञान था जिसे बाँच कर दिन भर चाय पीना और खैनी खाना होता था।अच्छा समाचार वाचक भी ऐसा,एकदम निस्काम निर्विकार भाव से दुःख और खुशी दोनोँ के न्युज एक ही भाव मेँ पढ़ने वाला।समाचार खतम कि समीक्षा शुरू" देखिये पाकिस्तान का,कोय भरोसा नहीँ,बीबीसी जैसा बोल रहा है भयंकर युद्ध ना हो जाय"।तब तक चौधरी जी" ई रिटायरमेँट के एजवा फेर 62 कर दिये,सुने कि नही जो बोला अभी बीबीसी"!रजक बोले "नही त"। "का महराज बीबीसी सुनते हैँ अउर धयानो नही देते हैँ,अभिये त बोला"। दोपहर हुआ कि काँख मेँ रेडियो लिये बल्लु यादव पंचायत भवन के चबुतरा पहुँच गये जहाँ ताश चल रहा है। अचानक रामजीतन चिचियाया"अरे मैचवा लगाओ बे,भारत सिरलंका मैईच है,शुरूओ हो गया होगा"।जी यही वो अवसर होता था जब ताश खेलने सभी 5वीँ फेल अंग्रेजी मेँ कमेँट्री सुन भी समझ जाते थे कि कब चौका लगा और कब आउट हुआ। आहा" बिनाका गीतमाला":-)पुछिये मत!अमीन सयानी के आवाज का जादू आज तक गाँव मेँ कायम है।रात के 8-9 बजे के बाद खा पी के मुखिया जी के दलान के ठीक पीछे वाले बगीचा मेँ मँगरू मँडल अपना खटिया बिछैले है,मार ऐँठ रहा है चाबी,कभी बंगला,कभी खेल,कभी समाचार तो कभी नेपाली चैनल की गीँ चाँ के बाद लगा एकबैगे हिँदी गाना।गर्मी की रात,पछिया हवा और खटिया तरे रखा रेडियो। बज रहा नशा "दिल ढुँढता है फिर वही फुर्सत के रात दिन"!खतम होते बजा "एक अकेला इस शहर मेँ,आबो दाना ढुँढता है जैसे गीत।मानो पूरा वातावरण खुद मेँ एक आर्केस्ट्रा बजा रहा हो। सच सुबह से लेकर रात सोने तक रेडियो गाँव की दिनचर्या का यंत्र था।मुश्किल से महीने मेँ एक सिनेमा देखने वाली पीढ़ी को रेडियो ही था जिसने लता मुकेश और रफी के गीत से जवान और जिँदा बनाये रखा।गाँव के न जाने कितने रसिये को जिँदगी का रंगीन रस पिलाने वाला एकमात्र वो "रेडियो" ही तो था। एक कायम जलवा था रेडियो का। गाँव की शादी हो और तिलक मेँ रेडियो ना मिला तो समझिये लड़की वापस।न जाने कितने रूठे दुल्हे को मनाया और घर बसाया इस रेडियो ने। फिलिप्स और संतोष कंपनी का रेडियो तो मानो हर दुल्हे का सैवाला था।अगर भूल चूक से शादी मेँ छुट गया तो गवना मेँ रेडियो संग ही बहुरिया ससुराल आती थी।आँगन भले दुल्हनिया के पाजेब से झनझन गुँजता रहे पर दुआर तो रेडियो के ही बोलने से गुलजार रहता था। हमारे एक मास्टर साब को रेडियो इतना प्रिय था कि उनके पड़ोस मेँ डकैत घुसा तो वो शोरगुल सुन पीछे से दिवाल फाँद भागे और 7 बरस के बेटे को अकेला छोड़ दिया पर रेडियो काँख मेँ दबाये रहे और सीधे थाने दौड़ वहाँ रेडियो रखा फिर वापस आ बच्चे का हाल जाना:-)। सच आज भी जहाँ रेडियो है वह गाँव जैसा भी हो,वहाँ कुछ भी हो ना हो पर वहाँ "सन्नाटा" नही है।जय हो

आबुआ दिशुम-आबुआ राज

मैँ झारखंड के खाँटी आदिवासी इलाके से हुँ,अखबारोँ, किताबी भयावह आँकड़ो और टीवी न्युज चैनल की सनसनाती प्राईम टाइम स्टोरी से अलग मैनेँ अपनी आँखो से लोगोँ की गरीबी भी देखी है और भुख से होते मौत को भी।मैनेँ देखा है भुख और स्वाद के लिए जंगल मेँ एक जंगली सुअर को मारने के लिए फटे कपड़ो मेँ पुरे गाँव का भाला बरझी लेके दौड़ना।मैनेँ देखा है बिना किसी शिकायत सुबह के 6 बजे कल के बने भात को केवल नमक के साथ खा कर दिन गुजार देने की जिजिविषा को भी।मैनेँ देखे है हाथियोँ के द्वारा रौँदे गये आदिवासियोँ के घर,देखा है खटिया पर लिटा के सरकारी अस्पताल जाते मरीज और उसी खटिया पर लौटते लाश को भी।मैनेँ देखी है वैसी झोपड़ी जो रात को ढ़िबरी के उलट जाने से जल कर राख हो जाती है और मुट्ठी मेँ बस राख ले के जिँदगी गुजारते भी देखा है मैनेँ।देखा है उन लोगोँ का घर जो ताड़ के पत्तोँ के छप्पर से बना है और जिन लोगोँ के लिए सरकारी लाल कार्ड,पील कार्ड रामायण और कुरान के जैसा से ज्यादा चमत्कारी है साहब क्युँकि कम से कम इसे दिखा 35 किलो चावल तो नसीब है न पर रामायण बाँच कहाँ पेट भरा है किसी का साहब।ये सब कुछ हमेशा देखने के बाद भी आज जो देखा वो और विचलित कर देने वाला था साहब। मेरे गाँव से ठीक 4 किमी. पश्चिम की ओर जाने पर एक आदिवासीयोँ का गाँव है"डुमरथर"। दोपहर गुजर रहा था तभी एक महुआ पेड़ के नीचे अपनी बाईक खड़ी कर एक फोन रिसीव किया मैँने,वहीँ खजुर की चटाई पर एक लगभग एक साल का बच्चा पेट के बल पड़ा था और जोर जोर से रो चिल्ला रहा था,तभी उसकी माँ आई,महुआ का एक पत्ता उठाया,चम्मच की तरह उसमेँ खजुर की ताड़ी डाली और उस बच्चे को पिला दिया।मैँ सन्न रह गया और खड़ा भी,बच्चा 5 मिनट मेँ चुप हुआ और सोने की मुद्रा मेँ लेट गया। मैनेँ उस औरत से पुछा तो उसने बताया कि ये तो रोज का काम है,उसे खेतोँ मेँ दिन भर काम करने जाना होता है,ऐसे मेँ ये लोग बच्चोँ को ताड़ी या चावल की बनी पौचो शराब की एक दो घुँट पिला सुला देते हैँ और निश्चिँत हो काम पर चले जाते हैँ। उसने मेरे जाते जाते हँसते हुए कहा"हमलोग दुध कहाँ पायेगेँ भैया,हमलोग का बच्चा के लिए यही ठो दुध है"। कुछ नहीँ साहब बस लिख के बता दिया,माफी के साथ कि पता नहीँ आप मेँ कौन अभी अभी मैँगो शेक या मौसंबी का जुस पी फेसबुक पर बैठा हो।साथ ही ये भी प्रार्थना करता है मेरा मन के अभी जब शाम हम अपने बच्चे को बोर्नबिटा का चाँकलेट फ्लेवर वाला बड़ा ग्लास थमायेँगे तब ये पोस्ट बिलकुल याद न आयेँ,नहीँ तो दावा है कि अगर हम मेँ रत्ति भर भी संवेदना होगी तो हाथ से ग्लास छुट के गिर जायेगा साहब।जय हो..

Friday, November 14, 2014

बचपन बिना "बाल दिवस"

अब बच्चे कहाँ पैदा होते हैँ साहब? बदले हुए तथाकथित चमचमाते भारत के बदले हुए परिवेश मेँ गौर से देखिये तो आपको बच्चे कम, बाप ज्यादा पैदा होते मिलेगेँ। बच्चोँ का एक वर्ग संपन्न परिवार के बच्चोँ का है जो अपनी प्रतिभा से चमत्कृत करता है,सारे गा मा प मेँ गाता है,दुलार की उम्र मेँ ईश्क समझने लगा है, 7 वर्ष की कच्ची साफ्ट उम्र मेँ हाथ मेँ हार्डवेयर माउस लिए कंम्पयुटर चलाता है, 8 साल की फूल सी नाजुक उम्र मेँ ओक्का बोक्का चंदन काठी खेलने के बजाय नेट पर खुनी विडियो गेम खेलता है, काठ के घोड़े चढ़ने की जिद करने की उम्र मेँ स्कुटी दौड़ाता है, हवा मिठाई खाने की उम्र मेँ रजनीगंधा गुटखा खाता है, फ्रुटी पीने की उम्र मेँ बीयर गटक जाता है, अब आप ही बताईए ये आपके हमारे बाप नहीँ तो क्या हैँ। इधर बच्चोँ का एक वर्ग ऐसे बच्चोँ का भी है साहब जो सुबह पीठ पर हुरकुच्चा मार के जगाया जाता है,उँघते हुए वो उठता है और चाय दुकान पर या नाश्ते की दुकान पर कमाने निकल जाता है,बीड़ी पीता है, पिज्जा इसने देखा नहीँ सो खैनी खाता है, खिलौने तोड़ने की उम्र मेँ पत्थर तोड़ता है,कंधे पर घुमने की उम्र मेँ ईँट भट्टे पर ईँट ढोता है, खेल खेल मेँ बालु का घर बनाने की उम्र मेँ वो बीड़ी बनाता है, कुल मिला कर वो कचरस उम्र से ही खुन जला के कमाता है और बिना एहसास हुए घर चलाता है क्योँकि ये तय है कि ऐसे बच्चोँ के घर मेँ अगर रोटी माँ बर्तन पोछा कर कमा के लाती है तो दाल इस बच्चे की कमाई से आती होगी, अब आप बताईए के इस छोटे उम्र मेँ अपने इन जिम्मेदारियोँ के लिहाज से ये बच्चे भी बाप नहीँ तो और क्या हैँ? हुजुर ये घर चलाने वाले लोग हैँ,बच्चा मत कहिये। यानि संपन्नता के बीच हो या विपन्नता के बीच पर आज सही मायने मेँ बचपन कहीँ नहीँ बचा। कहीँ पर अधिक सुख सुविधा ने बचपन को लील लिया तो कहीँ अभाव ने बचपन लुट लिया।असल मेँ बचपन का फूल तो संतुलन के बगीचे मेँ ही खिल सकता था, पर किसी ने इस पर सोचा नहीँ, तो किसी के पास सोचने खातिर कुछ था ही नहीँ। छोटी उम्र रही, बड़े बड़े काम रहे पर अफसोस के इस बड़ी होती विकराल दुनिया ने हमारा"बचपन" खा लिया। जाईए मेरी हाय लगे इस खोखली बड़ी दुनिया को।अच्छा है, आइए मजाक उड़ाईए,बाल दिवस मनाईए.....जय हो।

Tuesday, November 11, 2014

अँचार का आचार

अहा "अँचार"..नाम सुनते ही दाँत सिलसिलाने लगता है और मुँह मेँ इतना पानी भर जाता है कि मानो मुँह मेँ पाताल कुँआ फूट पड़ा हो।अभी गर्मीयोँ का मौसम है और अभी अँचार बनने का सबसे माकुल समय होता है जब आम अपने किशोरावस्था मेँ होता है,कटहल जवानी पर होता है साथ ही नीँबु,हरी मिर्च,बड़का लाल मिर्च,अदरख इत्यादि तो हमेशा तैयार ही रहते हैँ अँचार बनने को,असल मेँ मई जून की धुप मेँ अँचार बढ़िया से गलता भी है और सुखता भी है,ऊपर से गर्मी के मौसम मेँ खटाई पीने खाने का एक अलग ही मजा है।अच्छा अँचार पर पोस्ट युँ ही नहीँ लिख रहा,असल मेँ ये अँचार है ही इतना अद्भुत के क्या कहुँ! कल जब अपने मित्र शर्देन्दु जी के यहाँ अँचार खा रहा था के अचानक अँचार के सारे चटख मटक फलक खुलने लगे।मैनेँ महसुस किया के आप चाहे देश के किसी कोने का बना अँचार खाइए पर अँचार का स्वाद एक सा होता है।ये अँचार मामुली खाद्य एक्सेसीरीज भर नहीँ है बल्कि विविधताओँ से बने भारत के साँस्कृतिक समन्वयता का सबसे नायाब संकेतक है।मैनेँ जोधपुर की एक धर्मबहन से राजस्थान की बनी अँचार खायी, एक बार अपने मित्र अब्बास मेँहदी जी के घर अकबरपुर मेँ अँचार खायी,अमित शाह के आतंक वाले आजमगढ़ की अँचार भी खिलाई मित्र गोविँद जी ने,मेरा उड़ीसा का रूम पार्टनर था उसी मित्र केशव की लाई अँचार खायी,बेँगलुरू से भाई ने वहाँ की अँचार चखाई और अपने एक कश्मीरी खान मित्र के यहाँ की अँचार चखाई,दिल्ली का अँचार तो हर शनिवार खरीद खा रहा हुँ, साहब सारे जगह का अँचार खाया पर स्वाद एक सा पाया।अपने चरित्र मेँ इतना प्योर भारतीय केवल अँचार ही हो सकता है कि उत्तर हो या दक्षिण,पूर्व या पश्चिम ,चाहे किसी भी जाति,धर्म,या प्रदेश मेँ भिन्न भिन्न मसालोँ से भले बने पर जब वो अँचार बनता है तो बस खाँटी"हिन्दुस्तानी"बनता है :-)।जिस तरह लिखित संविधान के रूप मेँ एकल नागरिकता,एकल न्यायपालिका जैसे प्रबंधन और प्रावधान देश को एक सशक्त अखंड भारत के रूप मेँ स्थापित करते हैँ वैसे अलिखित रूप मेँ"एकल अँचार स्वाद" हमारी साँस्कृतिक एकता को बड़े भावुक बंधन मेँ बाँधता प्रतित होता है।पुरे देश को एक स्वाद मेँ पिरोने वाला अँचार भारत की एकल संस्कृति का वाहक है।आप दुनिया के नक्शे पर कहीँ भी बैठ अँचार का डिब्बा खोलिये,उसकी महक बता देगी के किसी भारतीय माँ के हाथोँ की बनी अँचार है ये।अँचार का गजबे जलवा है,घर मेँ मेहमान आयेँ हो तो जब तक थाली मेँ खट्टा अँचार ना सजाया तो लगता ही नहीँ के रिश्ते मेँ मिठास है,भला बिना अँचार कोय खाना होता है क्या, जितना प्यारा मेहमान उतने प्रकार का अँचार थाली मेँ:-)। अच्छा अँचार का लोकताँत्रिक चरित्र देखिये,चाहे गाँव के जमीँदार होँ या खेत का मजदुर सबके साथ बड़े मजे मेँ निभा देता है ये अँचार। जमीँदार गजराज बाबु की थाली मेँ जा उनके भोजन को खास बना देता है,उनके घर का चाकर फूचन बता रहा था" बाप रे खान पान के रहीसी त ठाकुर साहब के देखेँ,बिना तीन तरह के अँचार लिये खाना नहीँ खाते हैँ कबो"!दुसरी तरफ ये अँचार गाँव के किसान गिरधर मड़ैया के साथ भी खड़ा हो उसे ढाँढस देता है,खुद गिरधर कहता है"का करीँ,अब तरकारी सब्जी रोज खाइल इ मँहगाईँ मेँ जुलुम है सो रोटी अँचार खा दिन काट लेते हैँ"। वाह रे अँचार,ये है अँचार का रेँज,ऊपर से ले के नीचे तक सबके साथ पुरी आत्मियता के साथ खड़ा है अँचार,जहाँ जैसी भुमिका मिली वैसा निभा दिया बिना किसी ना नुकुर।समाज मेँ शांति बहाल करने मेँ भी योगदान दे देता है कभी कभी,शराब पी के कोई उपद्रव कर रहा हो बस थोड़ा अँचार चटा दीजिए नशा उतर जाता है,ऐसा डाक्टरी हुनर भी रखता है ये अँचार।इसका पारिवारिक दायित्व देखिये के जब आपके आँगन खुशियाँ आने वाली हो और आपकी गोद भरने वाली हो तो यही अँचार खाने की इच्छा के रूप मेँ एक शुभ शगुण वाले लक्षण और संकेत के रूप मेँ प्रकट होता है:-)। जनता की सेवा के लिये किसी से भी बिना शर्त सार्थक गठबंधन धर्म निभाना भी कोई अँचार से सीखे।जी नुक्कड़ पर बिक रहा पराठा हो तो अँचार वहाँ साथ दे के जले महके पराठे का बेड़ा पार करवा देता है,आप शनि शांति की खिचड़ी खा रहे होँ तो वहाँ खिचड़ी से यारी निभा आपका शनिवार चटख बना डालेगा,रेल का सफर हो तब पुड़ी के साथ अँचार ही आपकी खाद्य सुरक्षा का आधार होता है,चुड़ा पोहा मुरमुरे सबको सपोर्ट करता है,गर्मी मेँ पानी भात मेँ मिल के उसे चाट जैसा चटकामृत कर देगा,बड़े रेस्तराँ मेँ बैठिये तो पहले खुद आ जायेगा टेबुल पर और जितनी देर मेँ आपका आर्डर आयेगा उतनी देर चट खट कर आपकी जीभ का मन बहलायेगा:-) सच बताईए है कोई अँचार जैसा समर्पित और फीट।अँचार बनना खेल नहीँ,अपने बनने से लेकर खाने तक का सफर किसी तपस्वी के सफर की तरह होता है साहब।कच्ची उम्र मेँ टुटना,टुकड़ो मेँ कटना,तेल मसालोँ मेँ मिलना,धुप मेँ गलना,सुखना तब मर्तबान मेँ सजना और फिर परोसा जाना।देश मेँ चुनाव खतम हो चुके हैँ,आचार संहिता खतम हो चुकी है, काश अँचार का आचार आदमी अपना ले और अँचार संहिता लागु कर ले,कितना लचीला,कितना समन्वयी,मिलनसार,उदार,सबके साथ चलने वाला,लोकतांत्रिक अँचार की तरह। पर मालुम है अँचार बनाना आसान है,पर "अँचार बनना" मुश्किल है साहब,उसकी खातिर तपस्वी होना होगा। सो जाने दीजिए,आईये हम बस अँचार लगायेँ,आम का,कटहल का,दर्शन का,बुध्द महावीर से लेकर गाँधी के विचारोँ का...।  देखना है,अबकी बार...किसका अँचार:-)। जय हो।


Monday, November 10, 2014

लिट्टीलाइजेसन

"लिट्टी-चोखा'' आहा नाम सुनते ही आपके मुँह मेँ पानी आ जाय पर मेरी तो आँखोँ मेँ पानी भर आता है।मुँह तो मैँ आज भी इसके लिए बाये रहता हुँ।एक अनोखी भावुकता है लिट्टी के साथ। लिट्टी युपी बिहार का स्वादिष्ट ही नही अपितु आम साधारण लोगो का शाही फूड था ये।इसकी लोकप्रियता का कारण केवल इसका स्वाद नही था बल्कि इसके बनने मेँ इसकी कम लागत, कम समय, बिना किसी बर्तन और तामझाम के बनने और गरीब, किसानो, कामगारोँ के पेट की आग को दिन दिन भर बुझाये रखने की अद्भुत योग्यता से था जिसने इसे "जनभोजन" का दर्जा दिला दिया था। लिट्टी केवल एक type of desi food नही था बल्कि यह एक पुरा मैकेनिज्म है जो किसानोँ कामगारो और साधारण आम लोगोँ के भुख तंत्र से जुङा है।एक तो इसके बनने मेँ बस आटा और सत्तु चाहिए।बस सत्तु को भी कुछ नहीँ करना,उसमेँ तनी नमक डाला,कच्चा सरसोँ तेल,हरिहर मिर्चा का टुकड़ा,कच्चा लहसुन,नीँबु निचोड़ा, अजवायन और तनी अँचार का मसाला,सब डाल एकदम रगड़ के मिला दिये।एकदम लहरदार चटक सत्तु मसाला तैयार।अब आटा साना सत्तु डाला और बङका गोला बनाया और कहीँ भी गोयठा कंडा की भौरी जलाई और सेँक लिया।मिल के चार लिट्टी खाई और चल दिए देश खाने वालोँ के यहाँ पानी पी पी के मजदुरी करने। जी लिट्टी विज्ञान कहता है लिट्टी खा के पानी पीते रहने से वो अंदर फुलता है और भुख नही लगती,पेट भरा महसुस होता है।इतना चमत्कारी और गरीबोँ कि सँजीवनी हुआ करता था ये लिट्टी। गाँव देहात के लोगोँ के लिए खाद्य सुरक्षा का प्रतीक था ये लिट्टी।इतना ही नहीँ,भले इसे बनाने मेँ संसाधन कम लगते होँ पर जो भी संसाधन लगते थे वो बिना सब के मिले कहाँ से जुटते।केवल भोजन नहीँ बल्कि लिट्टी तो खुद आग पर जल समाज को जोड़ने वाला फेवीकोल था। बिरजु जा के अपने गोहाल से गोयठा उठा लाया,तो लखंदर आटा सान रहा है,ताजा लहसुन मिर्चा के लिये दौड़ के हरिया अपनी बाड़ी से तोड़ आया,इधर गणेशर गोला बाँध रहा है तो उधर बजरंगी आग पर हल्का हल्का सेँक रहे हैँ।जब तक लिट्टी सेँका रहा है सब छिरिया के बैठे हैँ बोरा बिझाये,गाँव का किस्सा "अहो सुने कल गौरी मंडल के मुर्गा मार के कउन तो खा गया और बदमाशी देखिये कि खाय के पंखी द्वार पर टांग गया"।तब तक गंभीर टॉपिक पर चर्चा उठ जाती "ई साला सुने बिजली SDO फेर लौटा दिया,कहा ट्राँसफरमर हईए नही है अभी,बताईये तीन महीना से अँधार मेँ हैँ,साला 5000 तो खिला चुके चंदा उठाय के बिजली ऑफिस को,बहुत आफत है गुरू"।ऐसी और ना जाने कितनी बातेँ। जी हाँ ऐसा होता था लिट्टी,ये अंदर पेट को गर्मी देता था बाहर रिश्तोँ को,चर्चाओँ को गर्मी देता है। ये हमारा इतना अपना था कि आज मन भावुक हो उठता है इसे खुद से दुर और पराया होता देख। आज शहर मेँ जब इसे लिट्टी से लिट्टीज बनते देखा तो आँख भर आई।85 रुपये मेँ 2 पीस मिलने लगा है ये। कहाँ तो हमरे गाँव का लिट्टिया एकदम बदल गया है यहाँ आ के। हमे देख मुँह फेर लेता है। मैँने उससे कहा भी कि शहर आ के तेरी कीमत बढी है पर कद छोटा भी हुआ है। हमारे यहाँ तु लिट्टी का गोला था यहाँ छोटी सी लिट्टीज की गोली हो गया है।पर वो खुश है यहाँ। कहा "अमीरोँ की सँगत मेँ अब मेरा लिट्टीलाईजेशन हो गया है,इसमेँ कद और गुणवत्ता घटती है पर कीमत बढ़ जाती है"। कहा अब यहाँ भी लोग खाते कम और बचाने ज्यादा लगे हैँ तभी तो यहाँ भी हिट हुँ।मगर लिट्टी नही जानता यहाँ लोग उसे चम्मच से खाते हैँ हम उसे मन से खाते थे।जब एक साहब को मैँने लिट्टी की पेट काँटा चम्मच भोँकते देखा तो लगा जैसे बचपन के साथी को खुखरी गँथा दी किसी ने,दिल दहल गया। कुछ भी हो पर हाँ चलिये आज जब लिट्टी को मालपुआ और पनीर टिक्का और दाल बाटी चुरमा के साथ कतार मे सजा हुआ देखता हुँ तो सँतोष मिलता है कि अपना लिट्टी बङी औकात वाला हो गया। वो आज भी मेरा उतना ही लगता है जितना पहले।:-) जय हो।

"बस स्टैँड" बस "स्टैंड" नहीं

कभी किसी "बस स्टैँड" पर कुछ घंटे तो बिताया ही होगा आपने! चाहे छोटा शहर हो या बड़ा,बस स्टैँड का माहौल कमोबेश पुरे देश मेँ एक जैसा ही होता है।खुलती जाती आती बसेँ,रह रह के हार्न दबाता ड्राईवर झोला ले के दौड़ते पसेँजर,उसके पीछे अपनी मुँगफली का पैसा लेने दौड़ता झालमुड़ी वाला:-)।कुछ तो खास किस्म के पसेँजर होते हैँ,वो पुरे समय बस के पास खड़े वक्त गुजारेँगेँ,पर जैसे बस स्टार्ट हुआ और हार्न दबा कि वो बेल्ट ढीला किये दीवाल की तरफ दौड़ेँगेँ जहाँ मोटे अक्षरोँ मेँ लिखा होता है" कृपया यहाँ ... ना करेँ"!असल मेँ ये पढ़ते आदमी निश्चिँत हो जाता है कि ओ आदिकाल से यहाँ पर "किया जा"रहा है अतः इमरजेँसी मेँ थोड़ा कर ही दिया तो अपराध नही है।ऐसा आदमी जब तक बेल्ट पेँट पकड़े दौड़ते हाँफते न चिल्लाये "हो हो जरा रोक के ड्राईवर साब रोक के" तब तक वो सीट पर फीट हो बैठ ही नही सकता। अच्छा स्टैँड पर बिकने वाली कुछ खास चीजेँ होती हैँ जो हर बस स्टैँड पर हाथ और कंधे पर ही मेँ बाजार लिये लटकाये बेचते दुकानदार आपको दिख जायेगेँ,जैसे-ताला चाबी,20 रूपये तक के बच्चे के खिलौने,कलम,कंघी,बेल्ट,जैसे एक्सेसरीज।इन बेचने वालोँ का धैर्य और आत्मविश्वास IIM अहमदाबाद के प्रबंधन के स्नातक से ज्यादा होता है।आत्मविश्वास इतना गजब कि मैँने एक बेल्ट बेचने वाले को देखा वो एक धोती पहने बुजुर्ग को बेल्ट दिखा रहा है:-)।वो बुजुर्ग बेल्ट के बकलस को ऐसे खीँच के उसकी मजबुती देख रहे थे जैसे कोई ट्रैक्टर रस्सा लगा के ट्रक खीँच रहा हो। बुजुर्ग ने कहा" केतना दिन चलेगा,केतना पैसा इसका?" बेचने वाले ने झट बेल्ट बुढ़े के हाथ से लिया और जोर से तीन बार जमीन पर पटका "लो तोड़ के दिखा दो बाबा,ले जाओ एक नंबर चीज है,मिलता नही है,सुपर पीस है,एक दाम है भईया.कचकच नय,बोहनी का टाईम है,लास्ट 60 रूपिया लेँगेँ"! ना हाँ करके 50 मेँ मामला पट गया।मुझसे रहा ना गया,मैँने पूछा बाबा आप बेल्ट का क्या किजियेगा? बुजुर्ग ने हँसते सकुचाते कहा" ऊ पोतवा के लिए ले लिये हैँ,मैटरिक किया है.कालेज जायेगा अब"।मेरे रोँगटे खड़े हो गये।हाँ ये लाखोँ की गाड़ी मेँ हजारोँ के कपड़े पहन तैयार हो प्लान कर करोड़ो के मॉल मेँ खरीददारी करने वाला खरीददार नही है,ये तो वो है जो बिना किसी प्लान बैठे बैठे केवल 50 रूपये मेँ जिँदगी का सबसे सार्थक लगने वाला सामान खरीद लेता है।हाँ इसका पोता कॉलेज जो जायेगा बेल्ट पहन के साहब।सच बुढ़ापा अपने बस के भागमभाग ढेलमपेल वाली भीड़ के सफर मेँ भी भविष्य को लेकर कितना सजग है,कितना संवेदनशील है।हाँ भला आज के बेफिक्र जवानी मेँ ये सजगता और संवेदना कहाँ के अब कोई हामिद दादी के लिए चिमटा खरीद लिये जाय। अच्छा चलिए स्टैँड की दुसरी ओर:-)।पानी वाली चाय और बिना दाना का मुँगफली,झौँसाया भुट्टा,पहलवान दाँततोड़ु चना ये सब बस स्टैँड का सेट मेन्यु है। अच्छा स्टैँड पर आपको किताब विक्रेता मिलना ही मिलना है।ये नर्सरी की अंग्रेजी किताब से शुरू करेगा।फिर जोर जोर से हनुमान चालीसा,शिव चालीसा बोलेगा और फिर चुटकुले की किताब निकालेगा"सर जीजा साली के हँसी के चुटकुले निकालेँ"! फिर गाने की किताब।मालुम आज यो यो हनी के दौर मेँ मुकेश के दर्द भरे नगमे और रफी के रोमाँटिक गीत अगर जिँदा हैँ तो इसी किताब वाले के कंधे पर।और अँत मेँ धीरे आवाज मेँ कहेगा"जी कुछ और लिजिएगा क्या:-)"।आदमी झेँप जाता है और अपनी उत्कंठा को मिनिमाईज करते हुए आदमी अंत मेँ "सरस सलिल" ले के खुद को समझा बुझा लेता है।और हाँ अक्सर बस मेँ एक खास आईटम बिकता है"हाथ से जूस निकालने की घुरनी वाली मशीन"।ओह ऐसा मौसंबी का रस निकाल के दिखाता है कि क्या कहेँ,पर मैँने दस बार लिया होगा आज तक एक ग्लास ढंग से नहीँ निकला संतरा या मौसंबी का रस।:-) बस खुल गई।।बस स्टैँड सदा खुला रहता है।यही सब तो उन कुछ जगहोँ मेँ हैँ जहाँ जीवन कभी ठहरता नहीँ है।आना जाना लगा है साहब।हम सब एक बस के यात्री ही तो हैँ साहब:-)।जय हो।

Saturday, November 8, 2014

"रेलगाड़ी"..एक दिन का घर

"रेलगाड़ी" मेरे जीवन मेँ एक शिक्षक,एक संस्थान,एक गाईड की तरह है। मैँने न जाने देश दुनिया के कितने रंग इसी रेलगाड़ी मेँ देखे और न जाने कितनी बातेँ जानी सीखी और न जाने कितने दर्शन समझे।मैँ खोरठा बोलने वाला झारखंडी खाली रेल चढ़ चढ़ कर मैँने मागधी,मैथिली,बांग्ला,अंगिका,भोजपुरी,मारवाड़ी,छत्तीसगढ़ी और मोटा मोटी पंजाबी टाईप जैसी कई तो भाषाएँ सीख ली। कहीँ जाऊँ ना जाऊँ पर दिल्ली हावड़ा करते करते ही उत्तर दक्षिण-पुरब पश्चिम पुरे भारत का रंग ढंग साईड अपर सीट पर बैठे बैठे देख लिया।अब देखिए न रेल क्या क्या सिखाता और कर के दिखाता है।एक छोटी घटना देखिए। अभी घर को जा रहा था।रेल मेँ एक परिवार साथ साथ सफर मेँ था। रात को जब पति पत्नी बच्चे सब खाना निकाल बाँट खाने लगे तो एहसास हुआ कि "एक रेलगाड़ी ही ऐसी जगह है जहाँ एक मध्यम वर्गीय शहरभोगी भारतीय परिवार अपने पुरे सगे-सदस्योँ के साथ बैठ के सुकुन के साथ खाना खाता है"।ना कोई हड़बड़ी ना कोई फोन ना जल्दी जल्दी खा के काम को भागने की टेँशन। नही तो देखिये न साहब एक शहरी "मीडिल खलास"(क्लास:-)) परिवार की दिनचर्या।सुबह 6 बजे बच्चा उठ जाता है,मम्मी पहले हड़बड़ हड़बड़ बुतरूआ को जैसे तैसे पोँछ कपड़ा पहिना तैयार करती है, फिर बेचारी बिना मुँह धोये बिना नहाये दौड़ी किचन जाती है,बच्चे का नाश्ता खाना पैक किया, एक हाथ मेँ सेँडविच और दुसरे मेँ एप्पल थमा स्कुल बस तक छोड़ आयी।इधर बच्चे को छोड़ आई कि 7.30 तक बच्चे के पापा जग गये,पेपर पढ़ते हुए चाय पिया, जल्दी जल्दी नहाया फिर अकेले टेबल पर पत्नी ने नाश्ता कराया और निकल गये काम पर।तब जा के पत्नी नहाई और अकेले दिन का खाना खाया।3 बजे बच्चे स्कुल से आये,माँ ने खाना गर्म कर बच्चे को खिलाया।शाम को थका हारा पति आया!अकेला टीवी देखता हुआ चाय पिया।तब तक बच्चे खेल कुद के आये।जल्दी खा के पढ़ने बैठे और सो गये।तब तक पापा को भुख लगी।पत्नी किचन से गर्म गर्म रोटी सीधे निकाल खिलाई,पति भी गया फिर सोने,अंत मेँ थरिया कढ़ाही समेट 10.30 तक पत्नी ने खाना खाया। मतलब शायद ही कोई ऐसी तारिख हो जब पुरा परिवार एक साथ तीन टाइम खाना खा पाये। पर भारतीय रेल जिँदाबाद।8 बजे थे कि सीट के नीचे से झोला निकाला,डब्बे से पुड़ी निकाला,प्लेट मेँ आलु गोभी का भुजिया।तब तक मेँ पति ने कहा"पीला वाला पॉलिथिन किधर रखी हो,उसमेँ अँचार होगा निकालो"!इतने मेँ अपर सीट से पलटु उछल के नीचे आया"पापा हमुँ खायेँगेँ"! मम्मी ने तब तक कहा "चलो रिँकीँ को जगाओ"।इतने मेँ पत्नी ने लाल डिब्बा निकाला" ऐ जी एगो पेड़वा ले लिजिए नय त फेर खराबे न होगा"!पति ने एक पेड़ा उठाया,दो पुड़ी अपनी से ले पत्नी की तरफ सरका दिया।इधर पल्टु चिल्लाया"मम्मी तीता लगा.बाप रे पानी दो,नय पापा पेप्सी"। "चुप माजा रखा है पीयो पहले" तुरंत निकाल दिया मम्मी ने।पेपर बिछा है,पुरा परिवार एक साथ हिचक लटक के चलती ट्रेन मेँ जिँदगी का सबसे सुकुन वाला डिनर कर रहा है।रेल अगर 10-20 घंटे लेट है तो क्या साहब।एक शानदार यादगार डिनर और बन जाता है:-)सच रेल को घर मान कर केवल भारतीय ही यात्रा करता है और रेल को घर बना कर उसके साथ कुछ भी केवल भारतीय ही करता है साहब:-)।एक भारतीय ही है जो ये कतई नहीँ सोचता कि वो एक 10-20 घंटे के सफर का एक यात्री भर है और किराया दे के चढ़ा है फिर अपने स्टेशन उतर जायेगा, वो अपनी सीट से इतने भावनात्मक रूप से जुड़ जाता है कि जैसे वो सीट उसने बड़का बाबू से हिस्सा कर कोर्ट मेँ केस कर जीत के पाया है:-) "भारतीय रेल" की बात...हजारोँ बातेँ हैँ।एक एक कर जो देखा समझा सुनाता रहुँगा कभी कभार जी:-)।सच रेल कितनी भी लेट पहुँचे पर भारतीय रेल मेँ जीवन बड़े गति मेँ होता है साहब।जय हो