Monday, September 7, 2015

जमुनिया, जमुनिया, जमुनिया

"जामुन";-(।बात बड़ी साधारण है कि भला जामुन किसने ना खाया होगा अपनी जिँदगी मेँ।पर कभी कभी उसी जिँदगी मेँ ऐसे भी पल आते हैँ जब आप जामुन को केवल देख सकते हैँ,खा नही सकते।दिल्ली महानगर की सड़क पर जब ठेले पर काले काले चमचम करते जामुन को अकड़ के पड़ा हुआ देखता हुँ तो मन क्रोध से भर जा रहा है।जामुन तब जामुन नहीँ, लगता है IS का मुखिया "अबु बकर बगदादी" लेटा हुआ है ठेले पर।मन मेँ आता है दोनोँ हाथोँ से उठा पीस दुँ उसको,मार लात रिद्द छिद्द कर दुँ,ठेलवा उलटा दुँ और सड़क पर बिखेर दुँ जिसे आती जाती गाड़ियाँ कुचलती जाये।जामुन की छोड़िये,जामुन बेचने वाला भी गजबे समाजशास्त्री और मनोविश्लेषक होता है और उसका व्यवहार सचिवालय मेँ बैठे बड़ा बाबू की तरह होता है:-)।वो देखते जान जाता है कि कौन जामुन लेगा और कौन जामुन की बस जानकारी लेगा।आप पैदल पसीना से लथपथ हाथ मेँ झोला या पॉलिथीन लिये घुमते हुए उसके ठेले के पास जा पूछिए"जी भैया,जामुन कैसे दे रहे हैँ?" ठेला वाला आपकी तरफ देखे बिना जामुन पर पानी का छीँटा मारता रहेगा।आप एक दो बार फिर बोलियेगा,आखिर मेँ एक बार बोलियेगा"अरे भईया,अरे बताओ न जामुन कैसे किलो दे रहे हैँ"।किलो सुनते वो आपकी तरफ देखेगा,जामुन देने के लिए नहीँ बल्कि सिर्फ आपकी दिमागी हालत देखने के लिए,और तब बड़े कर्कस आवाज मेँ बोलेगा"60 रूपये पाव है,चलो भीड़ हटा लो भैया, आगे ले लो खीरे हरे वाले मिल रहे हैँ"।उसके मुँह से ये वाक्य पूरा होने से पहले हम आधी दूर निकल लिये होते हैँ।समझ नही आता कि आखिर ये वही जामुन है:-(जिसे हमारे गाँव मेँ बकरी खा के अघा जाती थी।मुझे याद है, मेरे घर ठीक सटे हाई स्कूल से सड़क पार करते ही एक मजार था और उसके ठीक पीछे एक झाड़ीनुमा जंगल,उसी से सटा एक छोटा पोखर और उसी की मेढ़ के किनारे कतारोँ मेँ खड़े जामुन के कई पेड़ थे।अक्सर वहाँ जाने के क्रम मेँ मैँ सुबह दोपहर स्कूल भी होता जाता था क्योँकि उसी की दीवार टप हम सड़क पार करते थे।भरी दुपहरी मेँ जब लू को भी लू मार दे,हम सारे दोस्त इकट्ठा हो जामुन तोड़ने निकल जाते थे।बहाने के तौर पर हाथ मेँ एक लोटा ले लेते थे जो इस बात का संकेत होता था कि हमे बड़ी मजबुरी मेँ जाना पड़ रहा है वर्ना उस धुप बताश मेँ भला कौन घर से बाहर कदम रखने देता।भला हो गाँव का कि उस समय भी आज के ही विकसित निर्मल भारत की तरह शौचालय मुश्किल से ही होता था घरोँ मेँ।अच्छा घर वाले अक्सर हड़काते कि उधर मत जाया करो,वहाँ भुत रहता है।पर हम जाते थे क्योँकि वहाँ जामुन भी होता था।भूत का डर बच्चोँ की मनमानी रोकने का एक अहिँसक तरीका था जिसे सामान्य तौर पर बच्चे मान लेते थे पर हमारा लेवल अब बढ़ चुका था,हम भूत के लेवल से उठ बाप के लात जूते तक पहुँच चुके थे,हमेँ रोकते तो वही रोकते,भूत नही।अच्छा जामुन पेड़ और पोखरा का पिँढ़, ऊपर से दोपहर 12 से 1 बजे का समय,गाँव के बुजुर्गोँ के अनुसार ये भुत के उत्पात की सबसे आदर्श दशा थी,हमारे लिए भी यही आदर्श समय था जामुन तोड़ने का।टीम का सबसे एक्सपर्ट पेड़चढ़वा लड़का फटाक पेड़ चढ़ता और जामुन से लदे डाल हिलाता,हम नीचे बाढ़ पीड़ितो की तरह लुटम लुट मचा के जामुन जमा करते।कई बार पेड़ चढ़ने वाला बस डाल डुलाता रह जाता और नीचे वाले सब जामुन खा जाते।अच्छा,मुँह मेँ लाख जामुन हो पर मन के एक कोने मेँ भूतवा वाला बात बैठा जरूर रहता था,जैसे पेड़ चढ़े लड़के की डाल हवा से इधर उधर हिली की वो भुत भूत बोल नीचे सीधे पोखर मेँ कूद जाता।पर हम सब भागते नहीँ,भुत रोज मिलेगा,जामुन साल मेँ बस 15 दिन..सो हम डटकर मुकाबला करते थे।अब हम नीचे से ढेला मार जामुन झड़ाते,मार ढेला,मार ढेला..।कभी ढेला मार मेँ निशाना चूकते ही हमेँ भूत के अस्तित्व का भरोसा एकदम हो जाता।"अरे साला,अबे ई दोगला भूतवा को देखा,हमरा ढेला केने फेँकवा दिया"।ये सुनते हम जितना खाया उतना संतोष कर निकल लेते, सब अगले दिन पर छोड़।मालूम आज तक पैसा से खरीद जामुन नही खाये हम।चाहे तो चुरा के या तो झड़ा के खाये।आज भी पूछा तो गाँव मेँ जामुन कौड़ी के ही भाव मिल रहा है।पर दिल्ली आ क्या हो गया हमरे जमुनवा को?अभी सोचा तो उछल गया।ठीक ही तो कर रहा है जामुन।जामुन हर भरे पेट की औषधीय जरूरत है।मेरे जामुन ने ये नब्ज पकड़ ली।इसने खाली पेट की तबाही देखी थी,आज भरे पेट की मजबुरी भी समझ रहा है।इसने हमारी तरह गाँव से आके खीरा ककड़ी की तरह मामुली होना स्वीकार नहीँ किया।इसे अपना मोल पता था।ये शहर खाये अघाये लोगोँ से भरा पड़ा है और उनका पेट ना जाने कितनोँ के खून पसीने को चूस ठुँस फूला है।जब जब उनके पेट मेँ किसी गरीब की आह गुड़ गुड़ करती है,उनको जामुन की जरुरत पड़ती है और ये जामुन उनसे पूरी कीमत वसुलता है।ये उनके पनीर और पिज्जा से ज्यादा कीमत लेता है उनकी मरोड़ के बदले।उस पर भी पूरी नही,हल्की मिठास ही देता है।ये जामुन ही है जो एक ठेले के आगे लाखोँ की गाड़ी को रूकने के लिए मजबुर कर देता है और एक किलो के बदले 200 रू-300 रू गरीब ठेले वाले को दिलवाता है।ये अमीरोँ की हेँकड़ी तोड़ता है जब तंदुरी और बर्गर खाये पेट का इलाज मैक्स और फोर्टिज वाले भी नही कर पाते हैँ तो ये जामुन की शरण मेँ आते हैँ।इस अर्थ मेँ मेरा जामुन मेरा बिरसा मुँडा है,मेरा सिद्धु कान्हु है,मेरा तिलका माँझी है।ये महाजनोँ से कभी मजबुरी मेँ बंधक रखे पायल,नथिया,झुमका,खून,पसीना वो सब वसुलने की कवायद करता है जो सदियोँ पहले से आज तक लुट रहा है कोई।आप देखिये न कितना काला है ऊपर से जामुन पर अंदर कितना सफेद,मीठा,माँसल और औषध के गुण से भरपूर।जो कहिये जामुन फिर भी चाहे जितनी कीमत ले पर नुकसान नहीँ दे रहा,उनके पेट को राहत ही देता है।इसकी लड़ाई किसी को नुकसान पहुँचाने की नहीँ बल्कि बस अपना सच्चा हक पाने की है।ये लड़ाई जंगल से लेकर ठेले के जामुन तक जारी है साहब। मैँ अपने जामुन के साथ हुँ,इसकी कीमत और बढ़े.,ये और चढ़े।अरे मेरे लिए तो ये आज भी पोखरे के पीढ़ पर बिना किसी कीमत खड़ा है,बस मेरे जाने भर की देर है।हाँ ये जो ठेले पर शान से बैठा है न ये"जामुन मेरा बिरसा मुँडा है":-)।जय हो।।

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