Monday, September 7, 2015

इश्क नहीं ! जज्बात है मांझी

अपना अपना नजरिया है।मैँने भी उजला सोना वाले क्लास मेँ बैठ उतना ही पैसा देके उतने ही गौर से "माँझी एक पर्वत पुरूष" देखी जितनी शायद अन्य संवेदनशील समीक्षकोँ ने देखी होगी:-)।नवाजुद्दीन जिँदाबाद और अब असली बात।बहुत गंभीर सिनेमाखोरोँ का मानना है कि ये फिल्म दशरथ माँझी के अपने पत्नी के प्रति प्रेम और समर्पण एवं त्याग की बेमिसाल जबरदस्त जिँदाबाद धरोहर है।हो सकता है कि मैँ एक क्रुर किस्म का एक असंवेदनशील आदमी हुँ जिसके कारण इतना विशाल प्रेम मुझे दिखाई ना दिया हो।अगर आप सच मेँ फिल्म नहीँ बल्कि नवाजुद्दीन की आँखोँ मेँ देख रहे होँ तो कहीँ से भी नहीँ लगता कि वो विशाल पहाड़ प्रेम के धार से टुटा है,साला साफ दिखता है कि वो पहाड़ एक संवेदनशील आदमी के जिद और जिजिविषा से चुर हुआ है।मैँ दावा करता हुँ कि अगर दशरथ माँझी की पत्नी की जगह उसका बेटा या बाप भी पहाड़ से गिर के मरा होता तो ये आदमी इसी जिद से पहाड़ तोड़ डालता।फिल्म मेँ जहाँ जहाँ दशरथ माँझी-पहाड़-नवाजुद्दीन आते हैँ फिल्म अद्भुत लगती है।फिल्म जब जब पहाड़ से दूर गाँव या खेत खलिहान जाती है तो ना बिहार दिखता है ना बिहारीपना ना बिहार की दशा दुर्दशा।केवल फास्ट फुड टाईप एसी सिनेमा हॉल मेँ बैठे बैठे दो तीन जल्दी जल्दी के दृश्योँ मेँ नक्सल और छुआछुत का रोमांच भले आप महसुस कर लेँ पर उससे देह हाथ झनझनाता नहीँ है ना ही खुन हिलोर मारता है।आप आज के भी बिहार के एक सर्वण-मुसहर गाँव उठा के एक कालजयी फिल्म रच सकते हैँ,पुरा मैटर पड़ा है पर शर्त है कि आप अनुराग कश्यप या तिग्मांशु धुलिया को लेके आईए,केतन मेहता से मजा नहीँ आयेगा।केतन मेहता का सौभाग्य था कि उनके हाथ दशरथ और नवाज लगे वर्ना बिहार तो छु भी नहीँ पाये केतन,ना संगीत मेँ ना परिवेश मेँ सिवाय उस घर के जहाँ दशरथ का घर दिखाया गया है।फगुनिया का फ्लेवर निश्चय ही केतन के डर का नतीजा था कि बार बार पहाड़ और दशरथ के बीच फगुनिया को आना पड़ा।केतन बाजार से डरे हुए हैँ और उनको नवाज और अन्य शानदार कलाकारोँ पर उतना भरोसा नहीँ था जितना हम दर्शकोँ को है:-)।मजुबरी मेँ उन्हेँ जबरन फगुनिया और दशरथ को कादो मेँ सानना पड़ता है,बदन के उभार पर कैमरा टाँगना पड़ता है और आधा कपड़े मेँ कुँआ मेँ घिट्टम गुथ्थी करा के गाल से कादो छुड़वाना पड़ता है वो भी 2013 मॉडल एक औसत गीत के साथ क्योँकि उन्हेँ डर था कि जब दिल्ली बंबई का एलिट पहाड़ तोड़ से उबने लगेगा तो ये निश्चय ये किचड़ उन्हेँ फिर से सीट पर साट देगा।मान लिजिए जब जब पहाड़ और नवाज के बीच फगुनिया या ये प्रेम फ्रेम आता फिल्म बाजारू मजबुरीपन का बोझ लिये दिखने लगती लेकिन जैसे पहाड़ और नवाज के बीच संवाद होता फिल्म जिँदाबाद हो जाती है।फगुनिया दशरथ के जिँदगी का हिस्सा है पर इस किस्से का उतना बड़ा हिस्सा नहीँ जितना बेवजह थोड़ा झौँका लगाने के लिए इसमेँ दिखाया गया है।ये प्योर एक आदमी के संवेदना से फुटे जिद के ज्वालामुखी की कहानी है जो साल दर साल जुनुन से परमार्थ मेँ बदल जाती है जब दशरथ कहते हैँ"पहाड़ टुट जायेगा त सबके रस्ता मिलेगा.सबका आराम होगा"ये है माँझी की असली ताकत।मैँ उसके इस बयान मेँ एक महानायक देख रहा हुँ और आप रोमियो या मजनुँ देखिये तो ये फर्क रहेगा आप और मुझ मेँ।मैँ दशरथ माँझी की असली कहानी कुछ नहीँ जानता पर नवाज को देख के लग रहा था कि नवाज खुद अपने और पहाड़ के बीच किसी को नहीँ आने देना चाहते।क्या बात यार..जैसे पर्दे पर पहाड़ का दृश्य आता वहाँ सब कुछ जिँदाबाद लगता है,नवाज वैसे लगते हैँ जैसा शायद फिर कभी ना लगेँ।पहाड़ पर जो कोई भी आके संवाद बोलता है वो कमाल है,वो चाहे झा जी पत्रकार होँ,मुखिया का लड़का हो,दशरथ के बाप होँ या छुटकी बेटी या वो निकला हुआ साँप..सब कमाल हैँ।ये पहाड़ हिन्दी फिल्म का सबसे जादुई स्पॉट दिखता है,साला कोई वहाँ आके कमजोर दिखता ही नहीँ,वो वासेपुर वाला सुल्तान जो मुखिया का लड़का बना है,अपने 30 सेकेँड के डॉयलॉग मेँ दिल जीत लेता है और वो लड़का जो दशरथ से उसकी बेटी का हाथ माँगने आता है,क्या ठेठ और पाक संकोच दिखता है और वो छुटकी का एक लाईन"मईया गयेल भगवान घरे,चलो तू खा लो बाबा" शानदार अदायगी,मुखिया जी का अगरबत्ती जला के घर से बाहर आना और अंदर जाने का अँदाज क्या क्या बातेँ कह जाता है।पर कुछ अजीब बात के लिए केतन से कहना है कि ये दशरथ माँझी को पैदल दिल्ली पहुँचाना एक बिहारी होने के नाते अखर गया मुझे, वो भी बनारस और आगरा होते हुए जो कि आज की ट्रेन भी वो रूट नहीँ पकड़ती सिवाय एक दो के।अगर सच्ची मेँ केतन को किसी ने बताया था कि माँझी पैदल दिल्ली गये थे जो जान लिजिए किसी ने फेँक दिया और केतन ने मान लिया,यार इतना जुनुनी आदमी रेल से धक्का देने के बाद पैदल तो नहीँ जायेगा,दशरथ मेँ जिद-जुनुन और आत्मसम्मान सब दिखता है नवाज के रास्ते,सो वो फिर रेल जरूर चढ़ा होगा।कुल मिलाकर ये फिल्म केतन मेहता के निर्देशन के लिहाज से खराब नहीँ पर औसत है और इसमेँ आप दशरथ माँझी को देख सकते हैँ उस काल के दशरथ का बिहार इसमेँ नहीँ मिलेगा आपको।कुछ भी हो पहाड़-ए -नवाज के लिए और अन्य सह कलाकारोँ के शानदार अभिनय के लिए जरूर देखनी चाहिए।राधिका आँप्टे" फगुनिया" को उसकी मीठी "बिहराठी" शैली(बिहारी-मराठी) की बोली के लिए बधाई,सुन के अच्छा लगता है,ये मराठी मुँह से निकली प्यारी बिहारी जबान राज ठाकरे को सुनानी चाहिए।केतन आपको थैँक्स कि आपसे जितना बन सका आपने दशरथ को एक बड़ा पर्दा दिया जो अब तक बोरे का चिथड़ा ओढ़े हुए था।और अंत मेँ यार नवाज-नवाज-नवाज आप कहीँ कहीँ दशरथ से ज्यादा दशरथ लगे हैँ:-)वो अपनी बेटी बेटा के शादी के वक्त का दृश्य..वो था बिहार:-)क्या लगे हैँ तभी नवाज नाचते हुए। जबरदस्त जिँदाबाद।जय हो।

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