Monday, March 14, 2016

नमस्ते टाटा सदा वत्सले

संघ ने नब्बे साल बाद धोती पहनने की उम्र मेँ आखिरकर हाफ पैँट खोल"फूलपैँट" सिलाया।वक्त से थोड़ा पीछे चलना उनका अपना मैटर है,उनका अपना दर्शन है वो जाने।मेरा तो बस इतना मतलब था कि ये परिवर्तन काश 15-17 साल पहले हो गया होता।उन दिनोँ न जाने कितनी जाड़े की सुबह मैँने ठिठुरते पुरा गोड़ उघारे काँप काँप कर शाखा लगवाया।तीन तीन यूकेलिप्टस के पेड़ ताप गये जला के हम अपने संघी कैरियर मेँ।तब आसपास बस्तियाँ ना जला करती थीँ जहाँ आप अपने हाथ सेँक पायेँ।जब कभी शिविर लगता और हम संध्या फेरी के लिए बाजार हो के गाँव निकलते तो ये बिना नाप का हाफ पैँट पहिने और शर्ट अंडरशर्टिँग किये बड़े लजाते थे,करिया टोपिया से मूँह ढक लेते थे और लाठी जमीन पर घसीटते आगे बढ़े जाते थे।पैँट मेँ लगा बटन इतना विशाल था कि बैलगाड़ी मेँ पहिया बना के लगा सकते था कोई।अच्छा गर्मी मेँ शिविर मेँ हाफ पैँट पहिन सोना सजा ही था,जब धर्मशाला की नालियोँ से आये मच्छर रात भर घुटना से लेकर तलवा तक भभोँर मारते।सुबह प्रचारक बलराम जी जगाते वक्त भी लठिया वहीँ कोँचते जहाँ हाफ पैँट का एरिया खतम होता है,यानि एकदम घुटने से ठीक एक बित्ता ऊपर।संघ मेँ हमेँ बताया गया था कि पूर्ण प्रचारक आजीवन अविवाहित रहते हैँ।हम बाद मेँ समझे कि जीवन भर हाफ पैँट और उसमेँ भी एक ही रंग का हाफ पैँट पहनने वाले लड़के अथवा आदमी को भला कौन अपनी बेटी देता।सोचिए न मड़वा पर बनारसी साड़ी मेँ गहनोँ से लदी दुल्हन के साथ हाथ मेँ लाठी लिये हाफ पैँट पहने दुल्हा सात फेरे लेते कैसा लगता।खैर चलिए बदलाव जब आया तब ही सही,स्वागत है।बस यही सोच रहा था कि मेरे टाईम भी अगर फूलपैँट होता तो शायद मैँ कुछ दिन और टिकता संघ मेँ।अब वापस जाने का कोई मतलब नहीँ..क्योँकि हम अब जिँस पहनने लगे हैँ।फूलपैँट से आगे निकल गया हूँ...नमस्ते टाटा सदा वत्सले।जय हो।

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