Sunday, February 7, 2016

डायन...हमारा मध्यकाल

कुछ महीने पहले एक घटना सुनी थी।घटना थी झारखंड की राजधानी से सटे कंजिया टोली गाँव मेँ पाँच औरतोँ को"डायन" कह के मार डाला गया।ये घटना सुन ली,कहीँ पढ़ा भी पर अब तक जेहन मेँ कहीँ ना कहीँ अटकी हुई है।साँस लेने के रास्ते आ जा रही है ये घटना।आदिवासी बहुल इस गाँव मेँ चार बच्चे बीमारी से मर गये।गाँव मेँ पंचायत लगी और कहा गया कि ये गाँव की उन 5 महिलाओँ ने अपनी "डायन सिद्धि"के लिए बलि ले ली है सो इन डायन महिलाओँ को मार दिया जाय नही तो और भी बच्चे मरते रहेँगे।बस इस फरमानी निर्णय के बाद ही उन महिलाओँ को घर से निकाल नंगा किया गया और दौड़ा दौड़ा कर भाले से गोद और पत्थर से कूच कर मार दिया गया।घटना पूर्ण हुई।क्योँकि इसके बाद कुछ ना हुआ।ना फेसपुक पर आँसु गिरे,ना खबरोँ मेँ आग लगी,ना कोई न्युज ब्रेकिँग हो पाया इन लोथड़ोँ पर,ना इन इनके खून के छीँटे रवीश के प्राईम टाईम की सरोकारिता वाले डेस्क तक पहुँच पाये कि देश इसे देख पाता,इस पर बात कर पाता,ना नारी मुक्ती के आंदोलनकारियोँ की भुजा फड़फड़ाई,कहीँ एक भी मोमबत्ती खर्च ना हुई।"डायन" क्या है?अगर बॉलीवुड मेँ बनी फिल्म"डायन" के नाम भर को छोड़ देँ तो इसके नाम तक से अनजान आज की टॉप स्कूलोँ मेँ पढ़ रही पीढ़ी को शायद ही इस शब्द की त्रासदी का अंदाजा हो।कहीँ कहीँ शहर मेँ गाँव की मिट्टी से पाउडर जैसा नाता रखने वाले नगरी परिवार मेँ दादी नानी के किस्सोँ मेँ चुड़ैल तक बात जाती है पर "डायन" को समझना वहाँ भी मुश्किल है।असल मेँ ये चुड़ैल की तरह कपोल कल्पित रोमांच का किस्सा नहीँ बल्कि 21वीँ सदी के उभरते भारत के दामन पर सबसे काले धब्बोँ मेँ एक है जिससे ग्रामीण आदिवासी क्षेत्र मेँ हर साल सैँकड़ो महिलाएँ मौत के घाट उतारी जाती हैँ।बचपन मेँ जब भी खेत खलिहान या सूने मैदान की तरफ निकल जाता तो अक्सर रास्ते मेँ कुछ सामान बिखरा पाता जिसमेँ लाल सिँदुर,कंघी,मिट्टी का दिया,लाल फीता इत्यादि होता था।घर आ के बताता तो सब कहते"अरे उसको छुए तो नहीँ,लाँघा तो नहीँ"।फिर मुहल्ले की तेतरी माय बताती कि ये सब डायन बनने वाली ने किया है,उसको छुना मत,जान ले लेगी।डर से हम नहीँ बताते कि उसका फीता हाथ मेँ बाँध क्रिकेट खेल आये और कंघी से बाल झाड़ चुके हैँ। मतलब ये हाल हमारे आसपास का था तो एकदम से देहात मेँ बसे शिक्षा से लाखोँ मील दूर बसे आदिवासी गाँव की हालत सोचिए?अकेले झारखंड मेँ पिछले एक दशक मेँ 1200 औरतोँ को डायन कर मार डाला गया है।अपने पंचायती राज पर इतरा रहे इस राज्य मेँ दशकोँ से पंचायती राजनीति और जमीनी झगड़ो के कारण भी डायन प्रथा को और बढ़ावा मिला जिसमेँ खुब दुश्मनी निकाली जाती है और जानबुझ कर किसी परिवार के किसी सदस्य को डायन बता दिया जाता है और इसका शिकार सदियोँ की तरह आज तक महिलाएँ ही हुई।कहीँ किसी गाँव कोई मवेशी,आदमी बीमार हुआ तो लोग इसे "टोना" का असर कहते हैँ और मानते हैँ कि ये टोना करने वाली टोनही का काम है जिसके वश मेँ भूत प्रेत है। ऐसे मेँ लोग कोसो दूर बैठे डॉक्टर के पास ना जा गाँव के ही "ओझा,गुनिया,बेगा"के पास जाते हैँ,ये आदिवासियोँ के बीच अपने झाड़ फूँक के लिए अपार श्रद्धा से देखे जाने वाले धँधेबाज हैँ।ये डायन का असर काटने के लिए दारू,मुर्गा,कबुतर और पैसा लेते हैँ और जब कभी इनकी योजना फेल हो जाती है और बीमार इनके चक्कर मेँ मर जाता है तो खुद पर आस्था को बचाने के लिए ये गाँव के किसी महिला को डायन बता देते हैँ और अंजाम उस महिला की नृशंस हत्या तक जाता है। इन्हीँ गुनिया और बेगा से पूछिए तो बताते हैँ कि टोनही/डायन जिसका बुरा चाहती है उसके घर के आगे सिँदुर,कंघी,हड्डी आदि रख देती है।ये अफवाह फैलाये रखते हैँ कि ये महिलायेँ टोना करती हैँ और नवरात्र,होली,दिवाली की अँधेरी रात मेँ नँगी होकर तंत्र साधना कर प्रेत को अपने वश मेँ करती है जिससे किसी का भी बुरा किया जा सके।गुनियाओँ द्वारा सदियोँ से चली आ रही ये अफवाहेँ अब एक काले और अंधे विश्वास के रूप मेँ स्थापित हो चुकी हैँ।डायन,टोनही,डाकन जैसे नाम देकर महिलाओँ को मारने का ये सिलसिला रोज जारी है।इन गाँवो तक ना शिक्षा और ना स्वास्थ्य सुविधाओँ की पहुँच है।झारखंड,छत्तीसगढ़ के आदिवासी बहुल इलाके मेँ ये घटनाएँ इतनी आम हैँ कि इस पर कोई उबलता विमर्श आज तक ना हो पाया।लिव इन से लेकर किस ऑफ लव के लिए लड़ने वाली पीढ़ी के लिए ये मामला बिलकुल अरूचिकर और पागलपन सा लग सकता है।महिलाओँ के अधिकार को लेकर सोशल मीडिया पर रोज एक जंग जारी है पर वहाँ भी डायन नहीँ,देवियोँ की लड़ाई है।दिल्ली जैसे बौद्धिक विमर्श के इतने बड़े पटल पर जहाँ माहवारी से लेकर यौन के अधिकार को लेकर सैँकड़ो गोष्ठियोँ का आयोजन होता रहा है वहाँ भी डायन अपना दर्द दर्ज करा नहीँ पाई है।ये लड़ाई उन आदिवासी महिलाओँ की है जिनका पक्ष रखने के लिए अखबार,टीवी से लेकर सोशल मीडिया मेँ शायद ही कोई है।एक उभरते हुए देश के ठीक बीच मेँ ये सब हो रहा है और कोई प्रगति का ढाँचा या नारी सशक्तिकरण का अभियान ये कलंक मिटाये बिना कैसे न्यायसंगत और पूरा माना जायेगा।हम दलित,पिछड़े और आदिवासी की बात तो करते हैँ पर आदिवासी और उसमेँ भी महिलाओँ का पक्ष एक पूँछ की तरह है जो भारी भरकम चलताऊ रंग बिरंगे विमर्शोँ के बोझ मेँ कहीँ नीचे दब जाता है।आपमेँ से किसी को ईश्वर ना करे कि ये दृश्य ना देखने को मिले जब किसी को डायन बता कैसे नंगा घुमा,बाल काट,फिर जिँदा जला दिया जाता है,कहीँ काट दिया जाता है।हमारी बहनेँ सबरीमाला मंदिर मेँ घुसने के लिए लड़ रही हैँ।इधर तृप्ती देसाई शनि पर तेल डालने को बेताब हैँ,सारा देश नारीवाद की तेलीय लड़ाई मेँ जागरूकता के साथ खड़ा है।इसी बीच मेँ एक मर चुकी डायन आपसे बिना टोना किये याचना कर रही है कि इनकी आने वाली पीढ़ी को इस दंश से बचा लिजिए।एक बार पहले अपने विमर्श मेँ तो "डायन" को लाईए।जल जंगल जमीन के राजनीतिक फलदायी लड़ाई से कहीँ बड़ी लड़ाई है ये।ये उनके लिए मानवता की लड़ाई।जंगल जमीन पर अधिकार छोड़िये,पहले जीने की जमीन तो दीजिए। जय हो।

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