Sunday, February 7, 2016

पीजिये दारु..मार्क्स जो बनना है

कल कुछ युवकोँ को युँ ही एक चौराहे के पास "दारू" पीते देखा।सब सिविल की तैयारी वाले छात्र ही थे और राम की रावण पर जीत की विजयादशमी इंजॉय कर रहे थे।"दारू" पीते देखने मेँ तो कुछ अचरज वाली बात नही थी पर उनका जो अंदाज और हड़बड़ी थी पीने वक्त उसने मेरा ध्यान खिँचा।एक ने झट से बंद पड़े मेडिकल स्टोर के सामने खड़े खड़े बोतल खोला"अरे भोँसड़ी के जल्दी गिलसवा निकालो,फेर जा के पढ़ना भी है"।दुसरे ने तुरंत पॉलिथिन से चार ग्लास निकाल चुकुमूकू बैठ जमीन पर रख दिया"डालो अब जल्दी,..ऐ मनोज जी भूजिया फाड़िये न"।मनोज जी ने धड़ भुजिया फाड़ सबको एक एक मुट्ठी बाँटा और दुर खड़े अशोक को आवाज लगाई"अरे अशोक भाई आईये न फटाक पीजिए महराज,ऊंहाँ हिस्ट्री बाद मेँ पेलियेगा"।दारू ग्लास मेँ डलते सबने बिजली की गति से ग्लास उठाया और एक दुसरे से अलग मुँह घुमा के आँख मुँद एक गटके मेँ पी लिया और ग्लास इस झटके से फेँका जैसे खून का साक्ष्य मिटा दिया हो।भक्क मुँह मेँ भुजिया डाला और ये कहते हुए निकल लिये"तब अबकी यूपी लोअर मेँ गर्दा उड़ाईयेगा कि नही अशोक भाई.."।सब कुछ इतनी तेजी से घटित हुआ मानो दारू नही बल्कि चाँदनी चौक मेँ बम प्लांट करके निकले होँ चारो लौंडे।ये कैसा पीना है मित्र:-)।"दारू" आज भी इस देश का सबसे सनसनीखेज पेय पदार्थ है।पीने वालो ने इसे प्रगतिशिलता और आधुनिकता से भी जोड़ जाड़ कर इसे सहज बनाने का प्रयास किया पर फिर भी "दारू"एक सहज पेय होने मेँ नाकाम रहा।कई विचारधाराओँ ने भारत मेँ इसे अपना वैचारिक पेय बना इसे मुख्य धारा का पेय बनाना चाहा पर बेचारे वो भी असफल रहे पर हाँ उनलोगोँ ने इसके एक बौद्धिक फलक को जरूर खोला और आगे चल आज दारू एक वर्ग के लिए बौद्धिक और प्रगतिशील फैशनेबुल पेय बना जिसे पीना और खुलेआम पीना आपको अच्छा फील कराता है।आपको जड़ परंपरा से मुक्ति वाला अहसास देता है।ये वर्ग जब फेसबुक पर दारू पीते हुए पोस्ट लगाता है तो वो महसुस करता है कि लो ये है मेरी आजादी,लो मैँने तुम्हारी सड़ी गड़ी वैदिक,पौराणिक सोच और जीवनशैली को "दारू"मेँ डुबा गला दिया।पर असल मेँ "दारू"कोनो इस या हमरे बाप की पीढ़ी की खोज थोड़े है जी।वैदिक काल मेँ दारू के दिवाने देवता"मुंजवत पर्वत बीयर बार"जा के सोमरस पीते थे।बिँबिसार ने दारू पी के कई दुश्मन दाब के मार दिया।फिर बुद्ध ने अंतिम समय दारू पिया।अशोक ने कलिँग के गम मेँ पिया और अहिँसक हो गये।अलाउद्दीन ने अपनी बाजार नीति मेँ बकायदा सैनिकोँ को सरकारी ठेके पर रियायती दारू पिलवाया।अकबर पी के रात भर तानसेन को गवाते और बीरबल से कुलेली करते।बाजीराव मस्तानी संग पी के युद्ध के साथ साथ रोमांस के भी शिखर पर पहुँचे।अंग्रेजो को दारू पिला पिला सिँधिया,होल्कर,गायकवाड और भोँसले ने अपना राज बचाया।गाँधी जी द अफ्रीका मेँ नस्लभेदी तनाव दारू पी के ही झेले।नेहरू जी ने माउंटबेँटन और एडविना के साथ दारू पी के ही कैबिनेट मिशन को साईड करवा भारत पाक बँटवारे के साफ मसौदे वाला फार्मुला तैयार करवा 15 अगस्त की आजादी सुनिश्चित की।ये अटल जी के दारू पीने के कारण ही आई हिम्मत थी कि अमेरिकी प्रतिबंधो को हटा सावन की घटा बताते हुए "परमाणु परीक्षण" किया और दुनिया हिला दी।अब हमारी पीढ़ी को लगता है कि "दारू"तो बस उनका फैशन है:-)।लेकिन प्राचीन काल से आज तक के गौरवमयी इतिहास के बावजूद दारू एक सर्वमान्य सहज पेय बनने मेँ नाकाम रहा।इसको एक वर्ग या तो बुरा व्यसन समझता है या कोई वर्ग प्रगतिशीलता का पेय पर है ये सनसनी ही।आप इसे या तो छुप के पीते हैँ या तो ऐसे दिखा के कि ये देखो मैँ दारू पीता हुँ,है तुम मेँ इतनी आधुनिक सोच।पर आप अभी भी दारू को कभी लस्सी या शर्बत की तरह पीने की औकात नही पैदा कर पाये।असल मेँ दारू क्या करे।जैसे पानी मेँ जो रंग डालिए उस रंग का हो जाता है वैसे दारू मेँ जो चरित्र घुलता है दारू उस रंग का हो जाता है बेचारा।जब ये दारू किसी रिक्शे वाले के पेट जाता है तो आपस मेँ गाली गलौज माथा फोड़वा देता है।जब ये हरिवंश बच्चन जी की कलम मेँ बहता है तो "मधुशाला" लिख देता है।किसी नेता के मुँह लगता है तो लोकतंत्र के कोठे पर कोई ममता कुलकर्णी रात भर नाचती है।यही दारू जब किसी शायर के दिमाग मेँ घुलता है तो लिखा जाता है"तू हिँदु बनेगा न मुसलमान बनेगा,इंसान की औलाद है इंसान बनेगा"।यही जब नरेंद्र चंचल के कंठ उतरता है तो माता के जयकारे से दुनिया गुँज जाती है और यही जब बसंत विहार के किसी चलती हुई बस मेँ कुछ हरामियोँ के रगो मेँ बहता है तो इंसानियत शर्मसार हो जाती है।दारू कुछ नहीँ।आप तय किजिये की आप कैसे हैँ।छुप के गीदड़ टाईप और खुल के लुच्चा टाईप पीना छोड़िये।पीते हैँ तो सहज हो पीजिए या मेरी तरह पीते देखिये खुशी खुशी।और जीवन मेँ एक सुझाव जरूर ध्यान रखना कि कभी किसी पीने वाले को दारू छोड़ने की सलाह मत देना:-)दुनिया मेँ इससे बड़ी बेवकूफी कोई नहीँ।दारू पीने वाला यमराज के भैँस पर भी बैठ बोतल खोल पी लेगा,वो आपकी क्या सुनेगा।खैर,आप दारू पी के भी नेहरू नहीँ हो सकते और ना दारू से दूर रह दयानंद सरस्वती।अच्छा तो गाँजा पी के भी अच्छा है और कुकर्मी शर्बत पी के भी कांड कर सकता है।रही बात बड़े बुजुर्गोँ के "दारू" को गंदा पेय मानने के भ्रांति की तो इस पर बस यही कहना चाहुँगा कि बड़े बुढ़ोँ को बकने दीजिए,अजी दारू चरित्र थोड़े खराब करता है,ये तो बस किडनी और लीवर खराब करता है:-)।ये तो डॉक्टर ठीक कर देगा।है न:-)।पर ध्यान रहे,जिनका ठीक ना हो पाया,वो पहले किडनी से जाईयेगा,फिर दुनिया से जाईयेगा।पत्नी छाती पीट लाश पर रोयेगी।बच्चे बिलखेगेँ।आप तो चल दिये पी के तिलहंडेपुर।अब रह गया परिवार जिँदगी को घसीट घसीट ढोने को।कमाये कौन और खाये कौन।बस कई बार कई परिवार ऐसे ही गड़बड़ा जाता है न चचा:-)।सो पीजिए।कुबेर टाईप लोग पियेँ,उनका तो सँभल जायेगा।आय से छोटे मँझोले पर सोच और बौद्धिकता मेँ बड़े लोग थोड़ा सँभल के पियेँ।ध्यान रखेँ आपका जीवन परिवार खातिर अनमोल है और मरने के कई खतरे रोज खुद हैँ सर पे।बाकि दारू अच्छी चीज है।पीजिए न,हमको का।जय हो।

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