Sunday, February 7, 2016

खुदखिंचन पद्धति ....सेल्फी

अक्सर आप पर्यटन स्थलोँ जैसे इंडिया गेट या ताजमहल कहीँ भी पर्यटकोँ को फोटो खिँचवा लेने के लिए कहते उनके आगे पीछे दौड़ते,उन्हेँ मनाते रिझाते फोटोग्राफरोँ को देखते होँगे।एक जमाना था जब इन फोटोग्राफरोँ का धंधा खुब चौकस और हिट था।पर समय बदला और जब से स्मार्ट फोन बाजार मेँ आये इन कैमरोँ के दिन लद गये और अब बड़ी मुश्किल से पेट चला पाते हैँ ये फोटोग्राफर लोग।मोबाईल से पहले के जमाने मेँ यही फोटोग्राफर थे जो हर पर्यटक की सैर को यादगार बनाते थे।मात्र आधे घंटे मेँ जब ये फोटोग्राफर आपको ताजमहल के साथ खड़ा कर फोटो मेँ उतार हाथ मेँ लिफाफा थमाते तो पैसा दे आदमी लिफाफा खोल पहले मिनटोँ खड़ा फोटो निहारता था फिर मुस्किया के बैग का चेन खोल उसके भीतरी खोल मेँ डाल लेता था फोटो।तब मुझे याद है कि गाँव से लेकर कस्बोँ और शहरोँ तक स्टूडियो का एक खास जलवा था।फोटो खिँचाने का एक कायदा होता था जिसे फोटोग्राफर लागु करता और खिँचाने वाले माननीय न्यायालय के आदेश की तरह मानते।वो जब हुँमायू के मकबरे पर खड़े गाँव से आये जोड़े को एक दुजे का कमर पकड़ने कहता तो कभी खुलेआम हाथ ना पकड़ने वाले जोड़े भी बेहिचक कमर पकड़ते।फिर वो कहता"जरा हँसिये।हाथ उपर करिये।पैर पीछे करिये।गर्दन दायेँ थोड़ा।इधर देखिये।मैडम आप भी हँसिये।आप भाई साब के कंधे पर रखिये हाथ।थोड़ा देखिये ईधर!" तो अभी अभी खरीदारी के वक्त हुए आपसी झगड़े के बाद तनाव के बाद भी वो जोड़ा हँसता था और फोटोग्राफर दोनोँ को करीब ला देता था।ये फोटोग्राफर ही थे जिन्होँने फोटो खिँचने का वो एंगल खोज निकाला था एक सिक्की से पतले आदमी के हथेली पर ताजमहल खड़ा हो जाता था,इंडिया गेट गढ़ जाता था।हर चीज को मुट्ठी मेँ बँद कर लेना,कदमोँ मेँ ले आना ये इंसान की शाश्वत इच्छा रही है..रावण से लेकर गाँव के प्रधान तक सब हथेली मेँ संसार चाहते हैँ।फोटोग्राफरोँ ने ही इस इच्छा को एक फ्रेम दिया और हर इंसान की दमित इच्छा को उकेर उसके हाथ ताजमहल तो कभी हथेली पर सूरज का एंगल दे उसके अहं को एक आत्मसंतोष दिया।दिल्ली घुमने आये मेरे गाँव के विभुती बाबू ने भी ऐसा एक फोटो संसद भवन के सामने घास पर लेट टाँग ऊपर उठा के खिँचवाया था जिसमेँ उनका लात संसद भवन के ऊपर दिख रहा था।वर्षोँ बड़े गर्व से वो फोटो दिखाते और हमसब आश्चर्य से उनका ये कमाल ऐसे देखते जैसे पाँच मुँह वाला शेषनाग देख रहे होँ।अच्छा तभी शादी ब्याह मेँ भी स्टूडियो का बड़ा महत्व था।मुझे अपने यहाँ के "केसरी स्टूडियो"मेँ जब भी कोई लड़की साड़ी पहन बायाँ हाथ नीचे किये,दाँयी हथेली बाँये के बाँह पर रखे और बगल मेँ एक लंबी टूल पर प्लास्टिक फूल का गुलदस्ता रखा फोटो खिँचवाते दिखती तो समझ जाईए ये लड़के वालोँ को पसंद के लिए जायेगा फोटो।उस वक्त फोटो खिँचाते लड़की का तनाव और वहीँ बैठे उसके पिता का तनाव बताता था कि ये UPSC के इंटरव्यु से ज्यादा नर्वस करने वाला पल होता था।पिता लगातार फोटोग्राफर से कहता"देखियेगा केसरी जी थोड़ा लंबा दिखे ई फोटो मेँ।और जरा हाथ पर वाला कटा का दाग बचा के।बढ़िया से खिँचिएगा।बहुत परेशान हैँ शादी के लिए।"।फोटोग्राफर फिर सबल देता"घबराईये नय,हमरा खिँचा रिजेक्ट नय हुआ है आजतक।बेजोड़ फोटो निकालेँगे"।मतलब तब फोटोग्राफर फोटो ही नहीँ,रिश्ते भी खिँचा करता था।मेरे गाँव था एक "माँ चंचला स्टूडियो और एक वीणा स्टूडियो"।मुझे याद है कि घर मेँ हर साल स्पेशल फरवरी मार्च के दिनोँ फोटो खिँचाने फोटोग्राफर आते।हम बच्चे छत पर जा अपने खिलौने एक चादर पर सजा देते और उसके बीच लेट फोटो खिँचाते तो कलैंडर ब्यॉय लगते:-)।फिर चलता पारिवारिक फोटो-सेशन।एक बार माँ दादी तो एक बार नानी की गोद मेँ।एक बार मौसी तो कभी बुआ के कंधे पर।ये फोटो आज भी मेरे लिए टाईम मशीन की तरह हैँ जो देखते उस उम्र मेँ पहुँचा देते हैँ।अब मोबाईल आ गया।पीछे 13 मेगापिक्सल तो आगे 8।दिया मोबाईल और फटाक खिँचा लिया,मेमोरी मेँ सेव।मोबाईल ने हर आदमी के अंदर एक विश्वसनीय फोटोग्राफर पैदा कर दिया है जो सब खीँच लेना चाहता है।जिस आदमी की मैट्रिक के पहले कोई पासपोर्ट साईज फोटो भी ना खिँचवाई थी घरवालोँ ने वो भी आज फोटोग्राफी को अपना पैशन बना चुका।ऊपर से जब से ये "खुदखिँचन पद्धति"(सेल्फी) चलन मेँ आयी है आदमी आत्मनिर्भरता के चरम दौर मेँ है।खुद का खुद खीँच रहा है।अच्छा जब रोज रोज अपना एक सा थोथना खीँच खीँच कर आदमी बोर हो रहा है तो मुँह की अजीब विचित्र भाव भंगिमा कर खीँच रहा है।कई युवतियोँ को देखा कमर को अजीब तरह लचका,होँठोँ को टेढ़वा गोल कर नाक को विचित्र तरीके से सिकुल और ऊपर के दोनोँ भँवोँ को जोड़ "खुदखिँचन"ले रही थी।हर आदमी के पास अब खीँचने का क्रेज है।मसलन कई को तो मोबाईल से ऐसा रोग लगा कि वो बकायदा कैमरा खरीद कुत्ता,बिल्ली,गिलहरी की फोटो खिँचते चलते हैँ।अब तो कैमरा खुब बिक रहा है पर फोटोग्राफर वाला युग गया जानिए।तब हम खिँचवाने के पैसे देते थे अब तो खिँचवाने के पैसे मिलते हैँ।हाँ ऐसे कई "खिँचरोगी" को मैँने सीपी और साकेत या हौज खास मेँ देखा कि गरीब के बच्चोँ पैसे दे के उन्हेँ बिठा कर फोटो खिँचते देखा।वो जितने गरीब हैँ उतने ज्यादा मोल हैँ उनके फोटो के।जितना मैला रहेँगे उतना साफ फोटो निकलता है।भुखमरी कंगाली के फोटो किसी भी अखबार या पत्रिका के लिए सबसे चमकदार फोटो साबित होते हैँ।जो जितना विभत्स है उतना दर्शनीय।थ्री इडियट के माधवन ने नई पीढ़ी को फोटोग्राफर बना दिया जिसे लगता है कि उसे रेँचो की दोस्ती मिल जायेगी।खैर आज भी बड़े फोटोग्राफर हैँ और बड़े स्टूडियो भी हैँ जो काले कमाई वाले काले आदमी के गोरे फोटो निकालते हैँ,उन्हेँ चमका के पेश करते हैँ।पर इधर मोबाईल से पैदा हुई शौकिया फोटोग्राफिक पीढ़ी ने खाने कमाने वाले छोटे मोटे फोटोग्राफरोँ का दायरा छोटा कर उनकी आय पर असर डाला है।टाँग खिँचने से लेकर फोटो खिँचने मेँ एक्सपर्ट इस पीढ़ी से उम्मीद करता हुँ अगली बार जब भी कहीँ जाईये तो एक फोटो इन कैमरे का बोझ उठाये फोटोग्राफर से जरूर खिँचवा लेना जी।जय हो।

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